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________________ १८१ विवि "सेक्क नरपति की सही, माम सु दौलतराम । सानै यह भाषा की, अपर जिनवर नाम ॥२५॥" सं० १७९५ में उन्होंने क्रियाकोष' नामक पन्ध मिला था। उस समय वह 'जयसुत' नामक किसी राजा के मन्त्री थे। समय वह उदयपुर में थे "संवत सत्रासै पिल्याणव, मादय सुदि वारस तिथि जानव । मंगलवार उदैपुर माहीं, पूरन कीनी संसे नाही। मानन्दसुत जबसुत को मंत्री, जयको अनुचर जाहि करें। सो दौलत बिनदासनि-दासा, जिन मारग की शरण गौ।" जयपुर में रत्नचन्द्रजी दीवान के होने का उल्लेख कपि मे किया है। रायमल्लजी नामक धर्मात्मा सजन की प्रेरणासे दौलतरामजी ने आदिपुराण, पद्मपुराण भौर हरिवंशपुराण की वनिकाएँ (गद्यानुवाद) लिखी थों। प्रेमीजी ने लिखा है कि-"इन प्रन्यों का भाषानुवाद हो जाने से सचमुच ही जैन समाज को बहुत ही लाम हुआ है। जैन धर्म की रक्षा होने में इन प्रन्यों से बहुत सहायता मिली है। ये प्रन्य बहुत बड़े-बड़े हैं। बचमिका बहुत सरल है। केवल हिन्दी-भाषाभाषी प्रान्तों में ही नहीं, गुजरात और दक्षिण में भी वे प्रन्थ पढ़े और समझे जाते हैं। इनकी भाषा बदारीपन है, तो भी वह समझ ली जाती है।" योगीन्द्रदेवछत परमात्मप्रकाश की और 'श्रीपालचरित्र' की बचनिका भी उन्होंने बनाई थी। टोडरमल्लजी 'पुरुषार्थसिद्प्युपाय' की भाग टीका अधूरी छोड़ गये थे । वह भी दौलतरामजी ने पूरी की थी। सं० १७७७ की रची हुई 'पुण्यावाचनिका' भी सम्भवतः भापकी कति है।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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