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________________ संचित इतिहास] कर्म न भेदा आतमा, कर्मन भेदो जोइ । आतमपद परमातमा, निह धारै सोह ॥६॥ जो वांछा सिव पद धरै, राग दोष कौं गार । ममता तजि समता भजी, काम क्रोध को मार ॥१२॥ प्रभुको सुमरण ध्यान करि, पूजा जाप विधान । जिन प्रणीत मारग विषे, मगन होउ मतिमान ॥३॥" गोवर्द्धनदासजी पानीपत के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम नन्दलाल था । लक्ष्मीचन्दजी उनके गुरु थे। सं० १७६२ में उन्होंने एक 'शकुनविचार' नामक शास्त्र की रचना की थी। उसकी एक प्रति श्री पञ्चायती मन्दिर, दिल्ली के भण्डार में (नं० लु १) सं० १८७४ की पण्डित चेतनदास की लिखी हुई है। कुल ५ पत्रे हैं। रचना का नमूना देखिये"स्वस्ति श्री जिनराज मुक्ति सुन्दर वरनायक, सकल जगत सुषकार सरव मंगल वरदायक । सजल जलद सम अंग विमल लक्षण गुणधारक, मथन कमठ सठ मान ईत भय पापनिवारक ॥ सपा धिराज पद्मावतो जाके वन्दत जुग चरन, करि जोरि वन्द नति करत नित पार्श्वनाथ भवभय हरन । स्वान दाहिने पाँव सौ, पुण्णहि षाज निज सीस । राज्य लाभ पुनि उदर सुष, कण्ठ गुदा धन दीस ॥१९॥ गुरु की भेली गुदउली, मंगलीक परसिद्ध । जो चलते सनमुष मिले, तो पावै सब सिद्ध ॥२४॥"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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