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________________ १९७८ [ हिन्दी जैन साहित्य का अरमनी गुजराती मारवारी, कसमीरी . नरों सेती जामैं बहु देस बसें चाह सौ ॥ रूपचंद बानारसी चंदजी भगोतीदास । जहाँ भले भले कवि धानत उछाह सौं । ऐसे आगरे की हम कौन भाँति सोभा कहैं, बड़ौ धर्मथानक है देखिये निवाह सौं ॥" दिल्ली शहर में नहर उनके समय में निकली थी, मुहम्मदशाह मुगल बादशाह के राज्य में लोग कैसे सुखी थे, यह सब कुछ कवि ने बताया है । श्री भावसिंहजी और श्री जीवराजजी की संयुक्त रचना 'पुण्यावकथाकोष' की एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन, आरा ( नं० ८४ ) में विराजमान है। यह रचना मुनि शिवनन्दि के शिष्य मुनि रामसेनकृत संस्कृत भाषा के ग्रन्थ का पद्यानुवाद है । इसमें कुल ५६ कथाएँ हैं। भावसिंहजी ने पण्डित दौलतरामजी की भाषा टीका के आधार से इसका पद्यानुवाद प्रारम्भ किया था और 'शीलाधिकार' तक वे इस ग्रन्थ को रच पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया । उनकी यह रचना अधूरी रह गई । शायद रुग्णावस्था में ही उन्होंने अपनी यही अधूरी कृति जीवराजजी के पास भेज दी थी, जिन्होंने पण्डित भैरोंदास के उपदेश से इसे सं० १७९२ में रच कर पूरा किया। इससे अधिक रचयिताओं का परिचय कुछ ज्ञात नहीं होता । उदाहरण देखिये " वर्द्धमान जिन वन्दिकै, तत्व प्रकासन सार । पुण्याश्रव भाषा करूँ, भवि जीवन हितकार ॥१॥ x x x x + 'दिल्ली मैं नहरि भाई तैसें यह कविताई ।'
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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