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[हिन्दी जैन साहित्य का धर्म के श्रद्धालु सं० १७४६ में हुए थे। मालूम होता है कि युवावस्था में कषि वासना में फंस गये थे; तभी तो वह कहते हैं कि 'पछत्तर में माता मेरी' सील बुद्धि ठीक करी।' सतहत्तर में उन्होंने शिखिर जी की यात्रा की थी। जैनधर्म के अध्ययन में उन्होंने अपना समय लगाया। कभी आगरा और कभी दिल्ली में रह कर साहित्य रचना की थी। दिल्ली में पं० सुखानन्दजी की शैली थी। कवि की सब ही रचनाओं का संग्रह 'धर्मविलास नामक ग्रंथ में है, जो संवत् १७८० में रचकर समाप्त किया गया था। कुछ अंश को छोड़ कर यह छप चुका है। यह संग्रह बहुत बड़ा है। इसमें अकेले पदों की ही संख्या ३३३ है। पदों
और पूजाओं के अतिरिक्त ४५ विषयों की अन्य रचनाएँ हैं। रचनाओं के देखने से विदित होता है कि द्यानतरायजी एक अच्छे कवि थे। 'कठिन विषयों को सरलता से समझाना इन्हें खूब आता था।' शायद यही सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने हिन्दी में अनेक पूजाएँ रची और भक्तिवाद-'दासोऽहं भावना का बीज 'सोऽहं. भावना रूपी अध्यात्मफल की प्राप्ति हेतु जैन साहित्य में बोया था। रचनाओं का नमूना देखिये"रुजगार बनै नाहिं धन तो न घरमाहिं,
खाने की फिकर बहु नारि चाहै गहना । देनेवाले फिरि जाहिं मिले तो उधार नाहिं,
साझी मिलैं चोर धन आवै नांहि लहना ॥ कोऊ पूत ज्वारी भयो घरमांहिं सुत थयौ,
एक पूत मरि गयौ ताकौ दुःख सहना । पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई,
एते दुःख सुख जानै तिसै कहा कहना ॥"