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संक्षिप्त इतिहास ]
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काहू
सौंन रोप पुनि काहून पोप चहै,
काहू के परोष परदोष नाहिं कहै है । नेकु स्वाद सारिखे कौं ऐसे मृग मारिबे कौं, हा हा रे कठोर तेरी कैसे कर तीसरा ग्रन्थ 'पदसंग्रह' है, जिसमें कवि के ८० पद, विनती आदि का संग्रह है । एक पद की बानगी लीजिये
बहे है |"
नहिं भावें ॥ ४ ॥
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"चरखा चलता नाहीं, चरखा हुआ पुराना ॥ टेक ॥ पग खूँटे दृय हालन लागे, उर मदरा खम्बराना । छीदी हुईं पांखड़ी पसलीं, फिरें नहीं मनमाना ॥ १ ॥ रसना तकली ने बलखाया, सो अब कैसेट | पद सूत सूधा नहिं निक, घड़ी घड़ी पल टूटै ॥ २ ॥ आयु मालका नहीं भरोसा अंग चलाचल मारे । रोज इलाज मरम्मत चाहे, वैद बाढ़ई हारे ॥ ३ ॥ नया चरवला रंगा चंगा, सबका चित्त चुरा । पल्टा वरन गये गुन अगले अब देखें मौदा महीं कात कर भाई, कर अपना मुरझेरा । अंत आग में ईंधन होगा, 'भूधर' समझ सवेरा ॥ ५५ " द्यानतरायजी * भी आगरे के निवासी थे और थे गोयल गोत्री अग्रवाल श्रावक । इनके पूर्वज लालपुर से आकर आगरे में बसे थे । इनके पितामह का नाम वीरदास और पिता श्यामदास थे । कवि का जन्म सं० १७३३ में हुआ था और व्याह सं० १७४८ में हुआ, जब वह १५ वर्ष के युवक थे। उस समय आग़रे में मानसिंहजी की धर्मशैली थी । द्यानतरायजी ने उससे लाभ उठाया । पं० बिहारीदास और पं० मानसिंहजी के धर्मोपदेश से वह जैन* ३० जे० सा० इ०, पृ० ५८ ।