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संक्षिप्त इतिहास ]
यों नीच संग तें नीचफल, मध्यम तैं मध्यम सही । उत्तम सँजोग तैं जीवको, उत्तम फल प्रापति कही ॥ १२३ ॥ किन्तु सज्जन दुर्जनद्वारा दुखी किये जाने पर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता -
"दुर्जन दृखित संतकौ, सरल सुभाव न जाय । दर्पण की छवि छारसौं, अधिकहि उज्जल थाय ॥ "
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कुव्यसन-रत पुरुष की क्या गति होती है, यह भी कवि की वाणी में पढ़िये
"पिता नीर परसै नहीं, दूर रहै रवि यार ।
अविचार ||
ता अंबुज में मूढ़ अलि, उरझि मेरै त्यों ही कुविसनरत पुरुष, होय अवस अविवेक । हित अनहित सोचै नहीं, हिये विसन की टेक ॥"
बीभत्स रस का चित्रण निम्न पद्य में करते हुए, भ० पार्श्व की चरित्रदृढ़ता को कवि ने किस उत्तम रीति से प्रकट किया है, यह भी पाठक, देखिये
"किलकिलंत बेताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । भौं कराल विकराल भाल मदगज जिमि गजहिं ॥ मुंडमाल गल धरहिं लाय लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुंकरहिं करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इ िविध अनेक दुर्भे धरि, कमठ जीव उपसर्ग किय । तिहुं लोकचंद जिनचंद्र प्रति, धूलि डाल निज सीस लिय ॥"
यह काव्य ही भूधरदासजी को एक अच्छा कवि प्रमाणित है । इनका यह ग्रन्थ दो बार छप चुका है।
करता