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________________ १७२ [हिन्दी जैन साहित्य का मूल ग्रन्थ की कैद के कारण विकसित नहीं हो पाई।' यह ग्रन्थ सं० १७५४ में बना था। ___ कविवर भूधरदासजी भी आगरे के रहने वाले थे और जाति के खंडेलवाल थे। इससे अधिक उनका कुछ परिचय ज्ञात नहीं होता। उनके बनाये हुए तीन ग्रन्थ मिलते हैं-(१) पार्श्व पुराण, .(२) जैनशतक और ( ३) पदसंग्रह । 'पार्श्वपुराण में तेईसवें तीर्थङ्कर भ० पार्श्वनाथ का जीवन-कथानक बहुत ही सुन्दर रीति से प्रतिपादित है । हिन्दी जैन-साहित्य में यही एक सुंदर स्वतंत्र काव्य है। प्रेमीजी ने इसके विषय में लिखा है कि “हिन्दी के जैन साहित्य में 'पार्श्वपुराण' ही एक ऐसा चरित ग्रन्थ है, जिसकी रचना उच्च श्रेणी की है, जो वास्तव में पढ़ने योग्य है और जो किसी संस्कृत प्राकृत ग्रन्थ का अनुवाद करके नहीं किन्तु स्वतन्त्र मप से लिखा गया है।" इसकी रचना में सौन्दर्य तथा प्रसाद गुण है । थोड़े से पद्य देखिये-सज्जन और दुर्जन के विषय में कवि की सूझ कैसी अनूठी है "उपजे एकहि गर्भसौं, सजन दुर्जन येह । लोह कवच रक्षा करे, खांडो खंडै देह ॥ दुर्जन और सलेखया, ये समान जग मांहि । ज्यों ज्यों मधुरो दीजिये, त्यों त्यों कोप कराहिं ॥ दुर्जन जनकी प्रीति सौं, कहो कैसे सुख होय । विषधर पोपि पियूपकी प्रापति सुनी न लोय ॥ तपे तवा पर आय स्वाति जलद विनट्ठी। कमलपत्र परसंग, वही मोतीसम दिठ्ठी ॥ सागर सीप समीप, भयो मुक्ताफल सोई। संगत को परभाव, प्रगट देखो सब कोई ॥
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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