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[हिन्दी जैन साहित्य का जगतराय अथवा जगतराम ने सं० १७२१ में 'पद्मनन्दिपञ्चीसी' छन्दबद्ध रची थी। उनके रचे हुए आगमविलास और सम्यक्व. कौमुदी नामक ग्रन्थ भी हैं । एक पद देखिये
"जिन दरसन पाये, आज नैना सुफल भये ॥ जिन० ॥ रोम रोम आनन्द भयो है, अशुभ कर्म गये भाज ॥ जिन० ॥ काल अनादि में निस दिन भवको, सरो न मन को काज ॥ जिन० ॥ 'राम' दास प्रभू जही माँगत हैं. मुक्ति सिम्बर को राज ॥ जिन० ॥" इनके पद छोटे और भक्तिरसपूर्ण होते हैं।
देवदत्त दीक्षित ने भ० सुरेन्द्रभूषग (सं० १७५८ ) के उपदेश से 'चन्द्रप्रभ पुराण' छन्दबद्ध रचा था, जिसकी अधूरी प्रति जसवन्तनगर के म न्दर में मौजूद है । उसका मंगलाचरण निम्न प्रकार है और उसमें लिखा है कि 'भा जिनेन्द्रभूषणोपदेष्ट श्री दीक्षितदेवदत्तकृते
"सब विधि हित विधि उदित सरव सिधि मुदित अंकधर । वंचकता वरजित सुभाव संतत विसंकहर । पर अभेदि जो सुन गुनत उर सुप विस्तारहि । सरनागत मन भव्य जीव जन गन जो तारहि ॥
अस जिन अगम प्रवर पढ़त हरत जनमरु मरन ।" बुलाकीदासजी का जन्म आगरे में हुआ था। वह गोयलगोत्री अग्रवाल दि० जैन श्रावक थे। उनके पूर्वज बयाना ( भरतपुर) में रहते थे। उनके पितामह श्रवणदास बयाना छोड़कर आगरे में आ बसे थे। उनके पुत्र नन्दलालजी को सुयोग्य देखकर पं० हेमराजजी ने उन्हें अपनी कन्या व्याह दी थी, जिसका नामा