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________________ संचित इतिहास] १६९ कवि सन्तलाल का रचा हुआ एक 'सिद्धचक्रपाठ' मिलता है। उन्हीं के रचे हुए सम्भवतः 'दशलाक्षिणिक अंग' भी हैं; उसके अन्तिम छन्द से यही ध्वनित होता है "जो ए पढह पढावहि सन्तु, लिपै लिगवै जोर महंतु । धर्म बढ़ बहु तासको, कवि रतन कृन 'सामुद्रिक शास्त्र' हिन्दी में सं० १७४५ का रचा हुआ श्री शान्तिनाथ दि० जैन मन्दिर अलीगञ्ज में है। वह बहुत अशुद्ध लिखा हुआ है । परन्तु अपने विषय की अच्छी रचना है । कवि ने अपना परिचय यों दिया है "सेवक मोहनलाल के, नरवर गढ़ी विश्रामु ॥३३६॥ तिनिको सुत कवि रतन हुव कीनी प्राथु (ग्रन्थ) विचारि । सत कवि याकी देपि के, लीजी सकल सुधारि ॥३३७॥ बुधि माफिक बरनन कियो, बुधि विनोद मन आनि । जाहि पढ़त बुधि बढ़ति अति, होइ सकल गन पानि ॥३३८॥" बिजैरामजी के कुछ पद मिलते हैं। इनकी कोई स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है । नमूना देखिये "मति तेरी मन्द भई, हो चेतन, मति तेरी मन्द भई । आप कुमायु(कमायो) पाप मगन ह्व, दोष जुदत दई ॥ ही चेतनु० ॥१॥ गुरुकी सीप एक नहीं मानी, मुनि करि करी गई । (?) विषै भोग तें सुपकरि मान्यौ, जिन गुण सुधि न लई ॥ हो० ॥२॥ मन तेरो फिरतु चहुँदिस प्रांन', ज्यों दधि मांहि रई । चेत सबै तो चेत मनुष, मति भ्रम से बहु तपई । हो० ॥३॥ करुणाकरि समकति चित रापो, संगति साधु मई । विजैराम कहत सिप न कुले, जो जात लई ॥हो०॥१४॥?"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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