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________________ २६८ [हिन्दी चैन साहित्य का अप्रवाली कीयौ वषानु । जननि कुंवरि तिहुनिगिरि थानु । गगर गोतु मलूको पूत् । भउ कवियन भग्ति संजूतु ॥" शिरोमणिदासजी पण्डित गङ्गादास के शिष्य थे। उन्होंने भ० सकलकीर्ति के उपदेश से, सिहरोन नगर में रहकर, जहाँ राजा देवीसिंह राज्य करते थे, सं० १७३२ में 'धर्मसार' नामक ग्रन्थ रचा था। कविता साधारण है, परन्तु रचना स्वतन्त्र है। प्रेमीजीने इसमें ७६३ चौपाई लिखे थे, परन्तु हमारे संग्रह की प्रति में उनकी सङ्ख्या ७५५ स्वयं कविने बताई है"सात सै पचपन सत्र जानि । दोहा चौपही कही बपानि ॥४॥" इसके अतिरिक्त 'सिद्धान्तशिरोमणि' नामक एक छोटा-सा ग्रन्थ इनका रचा हुआ और है; जिसमें इन्होंने श्वेताम्बर यतियों और दिगम्बरीय भट्टारकों के भेष का निषेध किया है। उस समय की सामाजिक स्थिति का पता इन ग्रन्थों से अच्छा चलता है। उदाहरण देखिये "नहीं दिगंबर नहीं वृत धार, ये जती नहीं भव भमैं अपार । यह सुनकै कछु लीजै सार, उतरै चाही भव के पार ॥५७॥ सिद्धान्त सिरोमनि सास्त्रको नाम, कीनी समकित रापिबै कै काम । जो कोउ पढे सुनै नरनारि, समकित लहै सुद्ध अपार ॥५४॥ कवि मंगल कृत 'कर्मविपाक' नामक रचना हमारे संग्रह के एक गुटका में है । अन्तिम छन्द इस प्रकार है "मंगल मिथ्या छांदि दै, यह संसारु असार । भजी एक भगवंत की, ज्या उतरो भव पार ॥६॥ जा सुमिरै सुषु ऊपजे, अन्तकाल विश्रामु । कोटि विषन टूटै रौं, सीझै बांछित काम ॥६॥
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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