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संक्षिस इतिहास]
१६० भ० कलितकीर्तिजी उपर्युल्लिखित भ० विश्वभूषण के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७८३ में 'जिनगुणसम्पत्तिव्रतकथा' रची थी। इन्हीं की 'अष्टक धमारि' नामक रचना हमारे संग्रह में है। उसके आदि और अन्त के छन्द पढ़िये
"रतन जटित कंचन की झारी, गंग जमुन भरि नीर । धार देउं जिनवर के आगैं, अघमल रहइ न धीर ॥
जिनराज चरण जुग पूजीयै हो । अहो भवि ज्ञानी पूजित सिवपुर जोइ ॥जलं॥१॥
वसुविधि अरघु चढ़ावौ जिनको, जिनकी( ? )आरती करौ मनु लाइ । मद्धि पावई चंदाप्रम पूजौ, ललितकीरति सुषदाइ ।
जिनराज चरण पग पूजीये हो।
अहो भविज्ञानी पूजत सिवपुर जाइ ॥" भ० सुरेन्द्रभूषणजी भी हतिकांत को गद्दी से सम्बन्धित थे। उन्होंने सं० १७५७ में 'श्रुतपञ्चमी व्रतकथा' रची थी, जिसके अन्तिम छन्द यों है
"सत्रह सौं सत्तानवि जानि, संवति पौप दसै वदि जानि । हस्तकन्त पुर में यह सचो, श्रीसुरेन्द्र भूपण तहाँ रची ॥
यह वृतुविधि प्रतिपाले जोइ, सो नरनारि अमरपति होइ ॥७९॥" भगतरामजी की रची दुई 'आदित्यवार कथा' संवत् १७६५ के लिपि किये हुये गुटका में सुरक्षित है। कवि ने अपना परिचय इन छन्दों में दिया है, जिनसे उनका नाम बिल्कुल स्पष्ट नहीं होता
"हीन अधिक जो अछितु होइ । बहुरि सवारौ गुनीयर लोह ॥