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[ हिन्दी जैन साहित्य का भट्टारक विश्वभूषण हथिकान्त (जिला आगरा) के पट्टधर थे। उन्होंने सं० १७३८ में 'अष्टाह्निका कथा' रची थी । इसी साल उन्होंने 'जिनदत्तचरित्र' भी रचा था। उनके रचे हुए कुछ. पद भी मिलते हैं । उदाहरण देखिये
"कैमै दैहुँ कर्मनि पाहि ! आपही मैं कर्म बाँधो, क्यों करि डारी तोरि ॥१॥ देव गुरु श्रुत करी निंदा, गही मिथ्या डोरि । कर णिसु दिन विष चरचा, रयौ संजमु बोरि ॥२॥ हॉसी करि करि कर्म बाँधे, तबहि जानी थोरि । अबहि भुगतत रुदनु आवै, जैसे वन धन मोरि ॥३॥ चतुर रुचि सभ्यक्त सौं करि, तत्त्व सौं रुचि जोरि ।
'विश्वभूषन' जोति जो जोवत, सकल कर्मनु फोरि ॥४॥" 'जिनमत खिचरी' नामक कृति का भी नमूना देखिये"लगु रही मो पिय हो दरसन की, पीया दरसन की आस
दरसनु कहि न दीजिये ॥१॥ काहे हो भूले भ्रम पीया, भूले भ्रमजाल, मोह महामद भेजियै ॥२॥
नगर बदो हथिकंत, अहो हथिकंत प्रसिद्ध,
. धमभाव श्रावग ठाहैं ॥१२॥ सुनियों हो भवि मनु दै, अहो भवि मनु दै याहि
मंगल होहि शरणा तनै । कीनी हौं परमारथ, अहो परमारथ हेत;
विश्वभूपन मुनिराज नै ॥१४॥ .इनका रचा हुआ एक 'ढाईद्वीप का पाठ' भी है, जिसकी कई जयमालावें हिन्दी में हैं।