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[हिन्दी जैन साहित्य का
गुणमाला का व्या गजसिंह से हुआ; तब मता ने गुणमाला को. जो शिक्षा दी, वह आर्य-मर्यादा की द्योतक है
"सीपावणि कुंवरी प्रत, दीयें रंभा मात । बेटी तूं पर पुग्प सुं, मत करजे बान ॥॥
भगति करे भरतार की, संग उत्तम रहजे । - वहां रा म्हो बोले रपे, अति विनय बहजे ॥२॥"
इस प्रकार की उत्तम सीख से यह पद्य ओत प्रोत है। गुणमाला ने अपना पातिव्रत्य खूब निबाहा। कथा सरस है और मध्यकाल के समाज का सर्जव चित्र उसमें मौजूद है।
नेणसी मूता ओसवाल जाति सिंहके श्वेताम्बर जैनथे। वह जोधपुर के महाराजा बड़े जसवन्तजी के दीवान थे। मारवाड़ी मिश्रित भाषा में राजस्थान का एक इतिहास लिखकर जिसे 'मूता नेणसी की ख्यात' कहते हैं, वह अपना नाम अजर अमर कर गये हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी ने इस ग्रन्थ की बहुत प्रशंमा की थी। इसको उन्होने इतिहास का एक अपूर्व और प्रामाणिक ग्रन्थ बतलाया था। यह ग्रन्थ संवत् १७१६ से १७२२ तक लिखा गया था। इसमें ऐसी अनेक बातों का उल्लेख प्रेमीजी बतलाते हैं, जिनका पता न तो कर्नल टॉड के 'राजस्थान' से चलता है और न किसी दूमरे ग्रन्थ से। इस ग्रन्थ में राजपूतों की ३१ जातियों का इतिहास दिया हुआ है। इसके पहले भाग में पहले तो एक-एक परगने का इतिहास लिखा है। उसमें यह दिखाया है कि परगने का वैसा नाम क्यों हुआ, उसमें कौन-कौन राजा हुए, उन्होंने क्या-क्या काम किये और वह कब और कैसे
•हि. सा. ३० पृ. ६६।