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संक्षिस इतिहास]
"गुणमाला रामति रमै ललनां, अहो प्यारे पेले विविध प्रकार, भांति
भांति ना घेलणां ललनां। गुव्यां सं प्रेम अपार ॥ १॥ गु०॥ सात पांच मिलि सारथी । ल. अहो । गावे गीत रसाल ।गु०। मात पिता नी लाडिली । ल. अहो । वाल्ही घणी मौसाल ॥२॥गु०॥ आडौ मांडै माय सुं। ल. अहो । अप मांगै वस्त अनेक ।मु०॥ करै तात सुं रूसणौ । ल. अहो । अपह होती बेटी एक ॥३॥गु०॥ षिण रोवै पिण मैं हँसै । ल० अहो । षिण में लाडू पाय |गु०॥ घिण नागी आगँ फिरै । ल० अहो । गोद मांहि सो जाय ॥४॥गु०॥"
बालापणि तो अति भलौ । ल । जिण में रंग न रोस गु०॥ चालू भी तरुणा पणौ । ल० । अजि हाँ ऊभी तिहाँ दोस ॥७॥गु०॥"
युवावस्था के नखसिख वर्णन की एक झाँकी भी देखिये
"कंचू पहरि जड़ाव को, कीधी कुचोपरि छाँह । सोभा अति अँगीयाँ तणी, जेहनी बढ़ीयाँ बाँह ॥२८॥मे०॥ हृदैस्थल ही वण्यो, मेली वर्णा सुघाट । दीठां सुप अति उपजै, पितृ दंड जाणे वाट ॥२९॥मे०॥ पेटइ पोइणि पत्रह तिमा, ऊपरि त्रिवली थाय । गंगा यमना मरसती, तीनों बैठी आय ॥१०॥मे. नाभि रखकी कुंपली, जंघा त केली स्थंभ ।
मानव गति दासै नहीं, दीसै कोई रंभ ॥३९॥मे०॥" कवि का यह वर्णन कामुकता के स्थान पर ललना के प्रति आदर भाव जागृत करता है। यह उसके जैनत्व की विशेषता है।