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"सुख दुख दीसै भोगता, सुखदुख जाननहार है, ग्यान सुधारस संसारी संसार में, करनी . करै सार रुपै जाने नहीं, मिथ्यापन को
[ हिन्दी चैन साहित्य का
सुखदुख रूप न जीव ।
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पीव ॥ ३२१ ॥
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असार ।
सं० १७११ में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ था ।
श्री खेमचन्दजी तपागच्छ की चन्द्रशाखा के पंडित थे । उनके गुरु का नाम श्री मुक्तिचन्द्रजी था । जब आप नागरदेश में थे, तब संवत् १७६१ में 'गुणमाला चौरई' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ की एक प्रति जैन- सिद्धान्त-भवन, आरा में सुरक्षित है, जो सं० १७८८ की लिपिबद्ध हैं । रचना सुन्दर है । कवि गुजरात की ओर रहे हैं, इसीलिये उसमें गुजराती शब्द आ गये हैं । उदाहरण देखिये
टार ॥ ३२४ ॥ "
"श्री ऋषभादिक जिनवर नमुं, चौबीसे सुखकंद । दरसल दुष दूरै हरै, नामै नित आनंद ॥ ५ ॥
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पूरब देस तिहां गोरषपुरी, जांणे इलिका आणि नैधरी । बार जोयण नगरी विस्तार, गढ मढ मंदिर पेलि पगार ॥५॥
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नगर मांहि ते देहरा घणा, केई जैन केई सिवतणा । महि विराजै जिनवर देव, भवियण सारै नितप्रति सेव ॥ १० ॥"
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गोरखपुर के राजा गजसिंह और सेठपुत्री गुणमाला की कथा को कवि ने इस ग्रन्थ में सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है । गुणमाला की बाल लीला का चित्रण जरा देखिये