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[हिन्दी बैन गहित्य कीयो ग्रंथ रविषेण नैं रघुपुराण जिय जाण । वहै अरथ इण मैं कयौ, रायचंद उर आंण ॥२७॥
संवत सतरह तेरोतरै, मगिसर ग्रंथ समापति करै।" इसकी प्राचीन प्रति सं० १७९१ की धामपुर की लिपिबद्ध है।
जिनहर्ष पाटन निवासी थे । इन्होंने सं० १७२४ में 'श्रेणिकचरित्र' छन्दबद्ध रचा था। (हि० जै० सा० इ०, पृ० ७१) इन्हीं की रची हुई एक 'ऋषि बत्तीसी' नामक रचना हमारे संग्रह में है; जिसके आदि और अन्त के पद्य निम्न प्रकार है
"अष्टापद श्री आदि जिनंद, चंपा वासपूज्य जिनचंद । पावा मुगति गया महावीर, अवर नेमि गिरनार सधीर ॥१॥
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उत्तम नमतां लहीए पार, गुणगृहतां लहीए निस्तार ।
जाइने दूर कर्मनी कोड़, कहै जिनहर्प नमूं कर जोर ॥३२॥" कवि खुशालचंद काला सांगानेर के रहनेवाले खंडेलवाल जैनी थे। सांगानेर में मूलमंघी पं० लखमीदास जी रहते थे । कवि खुशाल के वह विद्यागुरु थे। उनसे विद्या पढ़कर कवि खुशाल जहानाबाद (दिल्ली ) चले आए और वहाँ जयसिंहपुरा नामक मुहल्ले में रहने लगे। दिल्ली में उस समय सेठ सुखानंदजी शाह प्रसिद्ध थे। उनके गृह में श्री गोकुलचंद नामक एक ज्ञानी पुरुष थे। उन्हीं के उपदेश से कवि ने 'हरिवंशपुराण' का पद्यानुवाद सं० १७८० में किया था। यह अनुवाद ब्र० जिनदास जी के ग्रन्थ के अनुसार रचा गया है। कवि यही लिखते हैं
"तहाँ श्री जिनदास जू, ग्रन्थ रच्यो इह सार । सो अनुसार खुस्याल है, कही भविक सुषकार ॥३५॥"