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संक्षिप्त इतिहास ]
" जगत के सावधान करन कौ राजिपौर,
बाजत घरयार घरी घरी शोर करिके । आरिज हैं राज राऊ पूरब तपस्वी जन,
राषत है ज्ञानी विप्र यहै मन धरिकै ॥
होहु सावधान जग बेलकौ ठगाय राषौ,
गई फेर नाइ हेरै रहे कहा परिकै । बेलो ऐसो पेल जाको कबहूँ न आवै अंत,
मी अविनासी जग पासी सूंनि करिके ॥ २७ ॥” सारांशतः 'ज्ञानार्णव' एक सुन्दर आध्यात्मिक ज्ञान-रस पूरित रचना है, जिससे ज्ञानी जीवों का विशेष उपकार हो सकता है ।
कविराय चन्द्र का संवत् १७१३ का रचा हुआ 'सीताचरित' श्रीनया मंदिरजी धर्मपुरा दिल्ली के शास्त्र भंडार से ( अ ३२ ग ) उपलब्ध हुआ है । परंतु कवि ने उसमें अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। उदाहरण देखिये
"राम जानकी गुन विस्तार, कहै कौन कवि वचन विचार || देव धरम गुरु कुं सिर नाय, कहै चंद उतिम जग माय ॥
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रावन कौं जीत राम सीता ले विनीता आए, वरते सुनीत राज पलक सुहावनौ । सुषमैं वितीत काल दुपकौ वियोग हाल,
सवही निहाल पाप पंथ में न आवनौ ॥ वाही वर्त्तमान दीसै सबही सुबुध लोक,
सुरग समान सुप भोग मनभावनी ॥
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कोऊ दुषदाई नांहि सज्जन मिलायी मांहि,
सबही सुधर्मी लोक राम गुन गावनौ ॥११॥