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[ हिन्दी जैन साहित्य का
का स्मरण बड़े गौरव से किया है। मालूम होता है उस समय विद्वानों में साम्प्रदायिकता का पक्षपात घर नहीं कर गया था । देखिये जरा कविजी 'ज्ञानार्णव' की प्रशंसा में क्या खूब कहते हैं
यह रत्नरासि
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विलास है । अनेक जहाँ, निवास है ॥
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है,
रहत न मल द्रव्य अनन्त नयकौ कलाप यह आपगा मिलाप जामैं, न्हान कीने छीने पाप संगम सुवास ऐसो 'ज्ञानार्णव' हमारे हिय बस भातम काँ आदरस परम प्रकास है ॥ १४ ॥ " कविजी की रचना शैली प्रसाद गुण को लिये हुये हैं । कहीं अनेक पद्यों में कविवर बनारसीदास जीके काव्यों का छाया अनुसरण दीखता है । 'ज्ञानार्णव' का प्रारम्भिक छन्द ही देखिये
।
"नाना भांति गुणक निवास सुपद गंभीर केते जन्तु कौं उतपात ध्रुव आदि वीची है
धीरति ॥
"ललित चिन्ह पद कलित मिलत निरपति निज हरषित मुनिजन होय धोय कलिमल गुण दिद आसन थिति वासु जासु उज्जल जग प्रातीहारज अष्ट नष्ट गत रोग न अजरामर एकल अछल अग अनुपम अनमित शिवकरन । इन्द्रादिक वंदित चरणयुग, जय जय जिन अशरण शरण ॥१॥ 'ज्ञानार्णव' के द्वारा कवि जग-जीवों को ऐसा खेल खेलने के लिये प्रोत्साहित करता है, जिसका कभी भन्त न हो। वह किस सुंदर रूप में कहता है
संपति ।
जंपति ॥
कीरति ।