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________________ १५८ [ हिन्दी जैन साहित्य का का स्मरण बड़े गौरव से किया है। मालूम होता है उस समय विद्वानों में साम्प्रदायिकता का पक्षपात घर नहीं कर गया था । देखिये जरा कविजी 'ज्ञानार्णव' की प्रशंसा में क्या खूब कहते हैं यह रत्नरासि 9 विलास है । अनेक जहाँ, निवास है ॥ 1 है, रहत न मल द्रव्य अनन्त नयकौ कलाप यह आपगा मिलाप जामैं, न्हान कीने छीने पाप संगम सुवास ऐसो 'ज्ञानार्णव' हमारे हिय बस भातम काँ आदरस परम प्रकास है ॥ १४ ॥ " कविजी की रचना शैली प्रसाद गुण को लिये हुये हैं । कहीं अनेक पद्यों में कविवर बनारसीदास जीके काव्यों का छाया अनुसरण दीखता है । 'ज्ञानार्णव' का प्रारम्भिक छन्द ही देखिये । "नाना भांति गुणक निवास सुपद गंभीर केते जन्तु कौं उतपात ध्रुव आदि वीची है धीरति ॥ "ललित चिन्ह पद कलित मिलत निरपति निज हरषित मुनिजन होय धोय कलिमल गुण दिद आसन थिति वासु जासु उज्जल जग प्रातीहारज अष्ट नष्ट गत रोग न अजरामर एकल अछल अग अनुपम अनमित शिवकरन । इन्द्रादिक वंदित चरणयुग, जय जय जिन अशरण शरण ॥१॥ 'ज्ञानार्णव' के द्वारा कवि जग-जीवों को ऐसा खेल खेलने के लिये प्रोत्साहित करता है, जिसका कभी भन्त न हो। वह किस सुंदर रूप में कहता है संपति । जंपति ॥ कीरति ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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