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________________ १५७ संक्षिप्त इतिहास गन परतर सब जग विदित, शुभ भाषा जिन चन्द । लबधि रंग पाठक सुगुरु, रत जिन धर्म अनन्द ॥ रत जिन धर्म अनन्द नन्द सम ब्रह्म बिचारी । द्वै शिष ताके भए विदुष चित, शुभ जिन गुन धारी ॥ कुशल नारायणदास तासु लघु भ्राता लखमन । जानि भविक सुषसदन विदित जग सब परतर गन ॥४९॥" जिन ताराचन्द्रजी के लिये उन्होंने यह पद्यानुवाद किया था, उनका भी परिचय पढ़ लीजिये"बदलिया गोतधर करत वजीरी नित स्वामि काम सावधान हिये परिचाउ है। ताराचंद नाम यह वस्तुपाल जूको नंद हिरदै मैं जाकै जिनवानी ठहराउ है ॥ इनहीं कै कारन ते ग्रंथ ज्ञान निधि भयौ, पढ़त सुनत याके मिटत विभाउ है। आगम अंगिमकौं बयान्यो मग भाषा रचि स्वरस रसिक यासौं राणे चित चाउ है॥" फतेहपुर नगर में अलफखाँ सरदार थे। उन्होंने ताराचंदजी के सिपुर्द राजकाज करके उन्हें दीवान का पद दिया था। कवि लखमीचन्द ने उन्हीं के लिये यह रचना की थी। उनका दीक्षा नाम लब्धविमल गणि प्रतीत होता है, क्योंकि एक स्थल पर यह उल्लेख है कि "लब्धि विमल पाइ मनुषकी गति नीकी ताही फल लीनों राच्यौ ध्यानके विधान सौं।" सेठ के कुंचा दिल्ली के शास्त्र-भण्डार की प्रतिके अन्त में भी इस 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ को पण्डित लब्धिविमल गणिकृत लिखा है। कविजी के विषय में एक बात नोट करने योग्य है, वह यह कि यद्यपि वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे, परन्तु हृदय के इतने उदार थे कि उन्होंने अकलंक-समन्तभद्रादि दिगम्बर जैनाचार्यों
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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