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[ हिन्दी चैन साहित्य का
कर्म के उदय तैं धानपुर में बसन भयौ,
सब सौ मिलाप पुनि सज्जनको दास है ॥ व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यौ नाहिं, भाषा मैं निपुन तुच्छ बुद्धि को प्रकास है । बाई दाहिनी कछू समझे संतोष लिये जिनकी दुहाई जार्के, जिनही की आस है ॥"
प्रेमीजी ने कवि की कविता साधारण बताई है, परंतु लिखा है कि 'कोई कोई पद्य बहुत चुभता हुआ है ।'
'त्रिलोकदर्पण' के रचयिता श्री खरगसेनजी भी अठारहवीं शताब्दि के कवि थे । वह लाभपुर (लाहौर) नगर के रहने वाले थे। उनके समय में लाहौर के जैनी श्रावकों की विचक्षण शैली थी। खरगसेन भी उनमें एक मर्मज्ञ थे। उन्होंने जिनेन्द्र-भक्ति से प्रेरित होकर 'त्रिलोकदर्पण' ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें उन्होंने तीन लोक का वर्णन करते हुए जिन चैत्यों का वर्णन किया है। आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण और त्रिलोकसार का
"एही लाभपुर नगर में, श्रावक परम सुजाण । सब मिलि के चरचा करै, जाको जो उनमान || षड्गसेन तिन मैं रहै, सबकी सेवा लीन । जिन वाणी हिरदै बसे, ज्ञान मगन रस चीन || "
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" चतुर भोज वैरागी जाण, नगर आगरे तिन बहुतौ कियो उपगार, दरव सरूप सबतैं बुद्धि बड़ी अतिसार, सोलह सौ पायों मरम हृदय भयो चैन, अगिणत जिन
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माँहि प्रमाण ।
दिए भण्डार ॥ ४१||
पचासिया धार ।
गुण लाग्यो लैब ||४४ ||” - त्रिलोकदर्पण 1