SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिस इतिहास] यशोविजयजी ने 'सितपट चौरासी बोल' के उत्तर में 'दिग्पट चौरासी बोल' भी रचा था, जो साम्प्रदायिकता से ओत-प्रोत है। विनयविजयजी भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् थे और यशोविजयजी के समय में ही हुए थे। वह उपाध्याय कीर्तिविजयजी के शिष्य थे और सं० १७३९ तक मौजूद थे। यशोविजयजी के साथ यह भी विद्याध्ययन के लिये काशी में रहे थे। इसी कारण इनको भी हिन्दी की अच्छी योग्यता हो गई थी। उनके ३७ पदों का संग्रह 'विनयविलास' नाम से प्रकाशित हुआ था। इनकी रचना अच्छी है । एक पद देखिये"घोरा झूठा है रे तू मत भूले असवारा । तोहि मुधा ये लागत प्यारा, अंत होयगा न्यारा ॥ घो० ॥ चरै चीज अरु डरै कैद सौं, ऊबट चले अटारा । जीन कसै तब सोया चाहै, खाने को होशियारा ॥ २ ॥ खूब खजाना खरच खिलाओ, यो सत्र न्यामत चारा । असवारी का अवसर आवै, गलियां होय गवारा ॥ ३ ॥ छिनु ताता छिनु प्यासा होवै, खिजमत बहुत करावनहारा । दौर दूर जंगल में डारे, झरै धनी विचारा ॥ ४ ॥ करहु चौकड़ा चातुर चौकस, घो चाबुक दो चारा । इस घोरे की ‘विनय' सिखावो, ज्यौं पावो भवपारा ॥ ५॥" मनोहरलालजी* ने संवत् १७०५ में 'धर्मपरीक्षा' नामक संस्कृत ग्रन्थ का पद्यानुवाद किया था। कवि ने अपना परिचय यों लिखा है"कविता मनोहर खंडेलवाल सोनी जाति , मूलसंधी मूल जा की सांगानेर वास है। हि. नै० सा० इ० पृ. ६४-६७ ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy