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[हिन्दी जैन साहित्य का यशोविजयजी भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध विद्वान् थे। उनका जन्म सं० १६८० के लगभग और देहान्त सं० १७४५ में गुजरात के डभोई नगर में हुआ था। वे नयविजयजी के शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी भाषाओं में उन्होंने कविता की थी। उन्होंने संस्कृत में लगभग ५०० ग्रंथ रचे थे। न्याय, अध्यात्म आदि अनेक विषयों पर उनका अधिकार था। यद्यपि वह गुजराती थे, पर विद्याभ्यास के सिलसिले में कई वर्ष तक काशी में रहे थे। यही कारण है कि वह सुन्दर हिन्दी रच सके थे। उनके ७५ पदों का संग्रह 'जसविलास' नाम से प्रकाशित हुआ था। कविता में आध्यात्मिक भावों की विशेषता है। उनके एक पद का रस लीजिये
"हम मगन भये प्रभु ध्यान में । बिसर गई दुविधा तन मन की, अचिरा-सुत-गुनगान में ॥ हम०॥१॥ हरि-हर-ब्रह्म-पुरंदर की रिधि, आवत नहिं कोउ मान में । चिदानंद की मौज मची है, समता रस के पान में ॥ हम० ॥ २ ॥ इतने दिन तू नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायौ अजान में। अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभुगुन अखय खजान में ॥ ३ ॥ गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में , प्रभुगुन अनुभव के रस आगे, आवत नहिं कोउ ध्यान में ॥ ४ ॥ जिनही पाया तिनाह छिपाया, न कहै कोऊ कान में । ताली लगी जबहि अनुभव की, तब जानै कोउ शान में ॥५॥ प्रभुगुन अनुभव चन्द्रहास ज्यौं, सो तो न रहै म्यान में। चम्पक 'जस' कहै मोह महा हरि, जीत लियो मैदान में ॥ ६ ॥"
*हि. जै० सा० इ०, पृष्ठ ६३ ।