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संक्षिप्त इतिहास] अध्ययन करके कवि ने स्वतन्त्र रूप में इस ग्रन्थ को रचा है। लाहौर में उस समय पंडित राइ और गिरिधर मिश्र गुणवान् शास्त्रवक्ता थे। श्रोताओं में पं० हीरानन्दजी, रतनपालजी, अनूपरायजी आदि उल्लेखनीय श्रावक थे। उस समय आगरे में चतुर्भुज वैरागी एक उल्लेखनीय विद्वान् थे। वह अक्सर लाहौर आया करते थे। सं० १६८५ में वह लाहौर आये तो उस समय कवि ने उनसे जैन-सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया और उसके पश्चात् इस ग्रन्थ की रचना सं० १७१३ में की; जिससे उन्हें बहुत संतोष. हुआ। वह लिखते हैं
"सकल मनोरथ पूरे भये, अलप रूप है जैसो थए । जैसो दम पायौ सन्तोष, तैसो सब कोई पात्रौ मोष ॥४४॥ संवत्सर विक्रम तें आदि, सत्रह से तेरह सुष स्वाद । चैत्र सुकल पंचमी प्रमाण, यह त्रिलोकदर्पण सुपुराण ॥४५॥ रच्यौ बुद्धि अनुसार प्रमाण, देषि ग्रन्थ पाई विधिजाण ।
अपणो आव सफल कर लियौ, बोधबीज हृदय में कियो ॥४६॥" यही नहीं, कवि इसे 'मुक्ति स्वयंवर की जयमाल' बताते हैं। रचना साधारण है; परन्तु पंजाब की राजधानी में रचे जाने पर भी उसकी भाषा में पंजाबी बोल-चाल का कुछ भी प्रभाव दिखाई नहीं देता। ___ जोधराज गोदीका सांगानेर के निवासी थे। 'धर्मसरोवर' प्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है
"जोध कवीसुर होय, बासी सांगानेर को। अमरिपूत जग सोय, बणिकजात जिनवर भगत ॥३७३॥ संवत सत्रह से अधिक, है चौईस सुजानि । सुदि पून्यौ भाषाढ़ को, कियो ग्रंथ सुपदानि ॥३८५॥".