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________________ [हिन्दी बैन साहित्य का परदेशी के एक पद की मधुरिमा भी चखिये"कहा परदेशी को पतियारो। मत माने तब चलै पंथ को, साँस गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छाँद इतही पुनि, त्याग चलै तन प्यारो ॥ दूर दिशावर चलत आपही, कोउ न रोकन हारो। कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो ॥ धन सौ राचि धरम सौ भूलत, मुलत मोह मंझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहिं भव पारो ॥ साँचे मुखसों विमुख होतहो, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे भइया, आपही आप सँभारो॥" कविवर की एक से अधिक सुन्दर रचनायें दोहा छन्द में भी हैं। नमूना देखिये "शयन करत है रयन में, कोठीधुज अरु रंक। सपने में दोउ एक से, बरतें सदा निशंक ॥ है है लोचन सब धरै, मणि नहिं मोल कराहिं । सम्यकदृष्टी जौहरी, विरले इह जग माहिं ॥" एक उर्दू की कविता भी देखिये "नाहक बिराने ताई अपना कर मानता है , जानता तू है कि नाहीं अंत मुझे मरना है। केतक जीवने पर ऐसे फेल करता है। सुपने से सुख में तेरा पूरा परना है। पंज से गनीम तेरी उमर के साथ लगे , तिनोंको फरक किये काम तेरा सरना है। पाक बेऐब साहिब दिल बीच बसता है, सिसको पहिचान थे तुझे जो तरना है।"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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