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हिन्दी बैन साहित्य का
"सुनि रे सयाने नर कहा करै 'घर घर'
मेरो जो सरीर घर घरी ज्यौँ तरतु है। छिन छिन छीजै आय जल जैसैं घरी जाय,
ताहू को इलाज कछू उरह धरतु है ॥ आदि जे सहे हैं ते तौ यादि कछु ताहिं तोहि,
आगै कहाँ वहा गति काहे उछरतु है। घरी एक देखो ख्याल घरी की कहाँ है चाल,
घरी धरी धरियाल शोर यों कस्तु है ॥" और भी सुनिये"लाई हौं लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम, कैसी बनी है। ऐसी कहूँ तिहूँ लोक मैं सुन्दर, और न नारि अनेक धनी है ॥ याही ते तोहि कहूँ नित चेतन, याहु की प्रीति जो तोसौं सनी है। तेरी औ राधेकी रीझ अनंत, सो मोपै कहूँ यह जात गनी है ॥"
कविवर ने श्रद्धानी सम्यग्दृष्टि की प्रशंसा कितने मनोहर ढंग से की, इसका भी रसास्वादन कीजिये"स्वरूप रिक्षवारे से, सुगुण मतवारे से,
सुधा के सुधारे से, सुप्राणि दयावंत हैं। सुबुद्धि के अथाह से, सुदूरि पातशाह से,
सुमन के सनाह से, महा बड़े महन्त हैं । सुध्यान के धरैया से, सुज्ञान के करैया से,
सुप्राण परखैया से, शकतो अनन्त हैं। सबै संघ नायक से, सबै बोल लायक से,
सबै सुख दायक से, सम्यक ले सन्त हैं।" किन्तु दुनिया में ऐसे सन्त बिरले हैं दुनिया तो रासरंग में पगली हो रही है, यह भी कविवर की वाणी में पढ़िये