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[हिन्दी जैन साहित्य का शोणित हाद मांसमय मूरत, तापर रीझत घरी घरी ।
ऐसी नारि निरख कर केशव, 'रसिक-प्रिया' तुम कहा करी ?" - कविवर की कविता में कितनी सत्यता थी। वह नारी की निन्दा नहीं करते; बल्कि शृंगारी कवि को उसकी गलती सुझाते हैं और तत्कालीन कुत्सित साहित्य के प्रवाह के विरोध में आवाज़ ऊँची उठाते हैं। नारी के व्यक्तित्व की रक्षा करते हैं, क्योंकि वह नारी को पवित्रता और महत्ता का प्रतीक मानते हैं। महापुरुषों का जन्म नारी की कोख से ही तो होता है। वह उसे केवल विलास की वस्तु कैसे मानते ? और कैसे शृंगारी कवियों की 'लपटाने रहें पट ताने रहें' की कुत्सित दुर्भावना को पनपने देते। भगवतीदास जी के ही अनुरूप वेदान्ती कवि सुन्दरदास जी ने भी 'रसिक-प्रिया' की निन्दा की थी। सारांशतः कविवर भगवतीदास जी ने कविता 'स्वान्तः सुखाय' अथवा विलासिता या किसी को प्रसन्न करने के लिये नहीं रची थीं, बल्कि लोकोपकार के लिये-लोक को अमरत्व और देवत्व का सन्देश सुनाने के लिये रची थी।
भगवतीदासजी आगरे के रहनेवाले थे। वह ओसवाल जैनी कटारिया गोत्र के थे। उनके पिता लालजी थे और दशरथ साहु उनके पितामह थे । खेद है उनके जीवन के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है । यह भी नहीं मालूम कि उनका जन्म कब हुआ था और वह कब स्वर्गवासी हुए थे। उनकी रचनाओं में संवत १७३१ से १७५५ तक का उल्लेख मिलता है। वि० सं० १७११ में जब पं० हीरानन्दजी ने 'पंचास्तिकाय' का अनुवाद किया तब आगरे में एक भगवतीदास नाम के विद्वान् मौजूद थे। सम्भवतः वह