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संक्षित इतिहास]. राधिका रानी के पवित्र भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर भक्तकषि अपनी मनमानी वासनामय कल्पनाओं को उद्दीप्त कर रहे थे। किन्तु आगरा की जैन-कविशैली समय की इस कुत्सित साहित्यधारा को निर्मल बनाने पर ही तुली हुई थी। हम देख चुके हैं कि कविवर बनारसीदास जी ने किस प्रकार 'नवरस' कृति को जो कुत्सित प्रेम और शृंगार रस से ओत-प्रोत थी गोमती की धारा में जल-समाधि देकर क्रान्ति का परिचय दिया था। कविवर भगवतीदास जी के समय में रीतिकालीन आदिकवि केशवदास विद्यमान थे। केशव शृंगार रस के मुग्ध-भ्रमर थे। शृंगार को वह अपने मन से बुढ़ापे में भी नहीं निकाल सके, आत्महित की भावना उनके हृदय में उस वृद्धावस्था में भी जागृत नहीं हुई। उनका तन बूढा हुआ, पर मन बूढ़ा नहीं हुआ। तभी तो उन्होंने कहा था
"केशव केशनि अमि करी, जैसी अरि न कराय । चन्द्रवदन मृगलोचनी, बाया कहि मुरि जाय ॥"
इसे अश्लीलता न कहें तो और क्या कहें ? केशव की 'रसिकप्रिया' को पढ़कर कविवर भगवतीदास जी ने जो उद्गार प्रकट किये हैं; वह उनके हृदय की पवित्रता और संयम भावना के योतक तो हैं ही, अपि तु उनसे यह भी प्रकट है कि कविवर के हृदय में लोकहित-कामना कितनी गहरी पैठी हुई थी। उन्होंने कहा था"बदी नीति लघुनाति करत है, वाय सरत बदबाय भरी । फोदा आदि फुनगुनी मंरित, सकल देह मनु रोग दरी ।। १०