________________
१४४
[हिन्दी जैन साहित्य का खनीय हैं। अलकार और छन्दशास्त्र भी इस काल में रचे गये। संस्कृत साहित्य के नाटकों का भी अनुवाद करके नाटक-प्रन्थों के अभाव की पूर्ति भी की गई।
इस काल में गा-साहित्य की भाषा परिमार्जित, सुन्दर और सुकुमार बना दी गई थी। बल्कि यह कहना चाहिये कि इस काल के जैन-गम ने वह सुधरा हुआ सुसंस्कृत रूप धारण कर लिया था कि जिससे आगे चलकर नवीन युग में खड़ी बोली के गद्य-साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ । गद्य-साहित्य के नमूने पाठकगण आगे पढ़ेंगे।
जैन कवियों में एक न्यूनता अवश्य खटकती है और वह यह कि वे आध्यात्मिकता और धार्मिकता में ऐसे बहे हैं कि उन रसों में उन्होंने बाढ़ ला दी है-संयम की और मानव-जीवन के परम उद्देश्य परमात्मत्व को पाने की भाव-दृष्टि से उनका यह प्रयास निस्सन्देह प्रशंसनीय है। किन्तु उन्हें मानव-जीवन के दूसरे पहलुओं को भुलाना नहीं था । संस्कृत और प्राकृत भाषा का जैन-साहित्य देखिये-वह मानवोपयोगी सब ही विषयों की रचनामों से परिपूर्ण है । किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने अपने हिन्दी. साहित्य को सर्वाङ्गपूर्ण बनाने का प्रयास नहीं किया । फिर भी यह संतोष की बात है कि जीवनयुग के जैन कवियों और साहित्यकारों ने इस न्यूनता की भी पूर्ति कर दी है।
परिवर्तनकाल के प्रारम्भ में हिन्दी-जैन-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कविरूप में हम कविवर भैया भगवतीदास जी को ही पाते हैं। बह उस समय अवतरे जब हिन्दी साहित्य में कविजन शृंगाररस की कुत्सित धारा में एकटक बहे जा रहे थे और विलास की मदिरा पिलाकर जनता को मार्गट कर रहे थे। श्रीकृष्ण और