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________________ संचित इतिहास समवर्ती रीतिकाल में पाया जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि जैन-कवि भी भक्तिवाद से कुछ-कुछ प्रभावित हुए । यही कारण है कि इस काल में हमें ऐसे पदों और भजन-गीतों का बाहुल्य मिलता है जिनमें भक्तिरस को छलकाया गया है। किन्तु उस भक्तिरस-प्रवाह में यद्यपि संयम का उल्लंघन करके वासना को प्रोत्साहन नहीं दिया गया है, तो भी उसमें जैन आदर्श के भकर्तृत्ववाद से विषमता आ गई है। जैन कविगण रीतिकाल में प्रवाहित धर्म की ओट में वासना-पूर्वक काव्यधारा को घृणा की दृष्टि से देखते रहे और उन्होंने ऐसे कवियों को सचेत करने के लिए ही मानों कहा था "राग उदै जग अंध भयो, महजै सब लोगन लाज गाई । मीन विना नर सन्धि रहे, विपनादिक सेवन की सुघराई ॥ तापर और रसें रमकाथ्य, कहा कहिये निनकी निठुराई । अंध असूमन की अग्वियानमें, मोकन हैं रज रामदुहाई ॥" जैनकाव्य प्राङ्गण की यह ममुज्वल निर्मलता और पवित्रता उसके आलोक को लोक के लिए स्वास्थ्यकर और विवेक-यल-वर्द्धक सिद्ध करती आई है। भगवान नेमिनाथ और सती गजुल के प्रसंग को लेकर शृंगाररस की रचनायें यद्यपि जैन कवियों ने रची, परन्तु उनमें भी संयमपूर्ण-मर्यादा का ही पुट देखन को मिलता है। उनका उद्देश्य भी मनुष्य को आत्मज्ञानी बनाने का था। __परिवर्तनकाल में जैन-कवियों ने कवित्त और सवैया छन्दों में मुख्य रूप से रचनायें रची थीं। कवि भूधरदास जी के कवित्त और सवैया सुप्रसिद्ध हैं। साथ ही दोहा छन्द को भी इस काल में मान्यता प्राप्त हुई थी। 'बुधजन' आदि कवियों के दोहे उन्ले
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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