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[ हिन्दी जैन साहित्य का
"हे दीनबन्धु श्रीपति करुना निधान जी ।
अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी ॥"
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“अब मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर ज़माना है । इन्साफ करो मत देर करो, मुखवृन्द भरो भगवाना है ।। "
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"इस वक में जिनभकको दुख व्यक सतावै । देखके, करुणा नहीं आवैं ॥"
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मात तुझे
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जान में गुनाह मुझसे बन गया सही । ककरी के चोर को कटार, मारिये नहीं ॥" "हमें आपका है बड़ा आसरा, सुनो दीन के बन्धु दाता वरा । नृपागार गर्तात तैं काहिये, अभैदान आनन्द को बाढ़िये || "
खड़ी बोली के छन्दों के अधिक उदाहरण उपस्थित करना व्यर्थ है । किन्तु इस भाषा के साथ कविवर जी ने ब्रजभाषा अथवा पुरानी हिन्दी भाषा का ही प्रयोग अधिक किया है । यही बात इस काल के कई अन्य कवियों की भाषा पर भी घटित होती है । इसलिए काव्य-भाषा की दृष्टि से इस समय को 'परिवर्तनकाल कहना उपयुक्त है ।
भाषा के साथ ही इस काल की काव्यधारा में भावात्मक कल्लोल भी नई प्राकृति में दिखती है । मध्यकाल में आध्यात्मिकता की बाढ़ आई थी और इसमें विश्व प्रेम - पूर्वक समता धारा बही थी । जैन कवियों ने चरित्र ग्रन्थों में आध्यात्मिकता के अतिरिक्त आदर्शवाद का भी चित्रण किया था, परन्तु उनसे उस बासनामयी भक्ति का सिरजन नहीं हुआ जो हिन्दी साहित्य के