SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . १४२ [ हिन्दी जैन साहित्य का "हे दीनबन्धु श्रीपति करुना निधान जी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी ॥" X X X X “अब मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर ज़माना है । इन्साफ करो मत देर करो, मुखवृन्द भरो भगवाना है ।। " X x x X "इस वक में जिनभकको दुख व्यक सतावै । देखके, करुणा नहीं आवैं ॥" ऐ मात तुझे X X X x जान में गुनाह मुझसे बन गया सही । ककरी के चोर को कटार, मारिये नहीं ॥" "हमें आपका है बड़ा आसरा, सुनो दीन के बन्धु दाता वरा । नृपागार गर्तात तैं काहिये, अभैदान आनन्द को बाढ़िये || " खड़ी बोली के छन्दों के अधिक उदाहरण उपस्थित करना व्यर्थ है । किन्तु इस भाषा के साथ कविवर जी ने ब्रजभाषा अथवा पुरानी हिन्दी भाषा का ही प्रयोग अधिक किया है । यही बात इस काल के कई अन्य कवियों की भाषा पर भी घटित होती है । इसलिए काव्य-भाषा की दृष्टि से इस समय को 'परिवर्तनकाल कहना उपयुक्त है । भाषा के साथ ही इस काल की काव्यधारा में भावात्मक कल्लोल भी नई प्राकृति में दिखती है । मध्यकाल में आध्यात्मिकता की बाढ़ आई थी और इसमें विश्व प्रेम - पूर्वक समता धारा बही थी । जैन कवियों ने चरित्र ग्रन्थों में आध्यात्मिकता के अतिरिक्त आदर्शवाद का भी चित्रण किया था, परन्तु उनसे उस बासनामयी भक्ति का सिरजन नहीं हुआ जो हिन्दी साहित्य के
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy