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( १३ ) था-हम उनको इस प्रसंग में भुला नहीं सकते। वह भी धन्यवाद के पात्र हैं।
प्राचीन रचनात्रों के उद्धरण उपस्थित करने में बड़ी कटिनाई यह रही कि मूलग्रन्थ की एक ही प्रति प्रायः हमारे सम्मुख थी और उस एक प्रति के आधार से पाठ का संशोधन करना अति-साहस का कार्य था।' इस अवस्था में हमने मूल पाठ को न बदलना ही श्रेष्ठ समझा-मूल प्रति में जो पाठ जैसा था, उसको वैसा ही उद्धृत किया है। विद्वान् पाठक इस लिए उद्धरणों में कहीं-कहीं त्रुटियाँ पायेंगे; परन्तु खेद है कि उनको सुधारने के लिए हमारे पास कोई चारा नहीं था।
प्रस्तुत पुस्तक के विषय में हम कुछ नहीं कहना चाहते। वह पाठको के हाथ में है और वह उसके गुण-दोष को स्वयं जाकेंगे। फिर भी पुस्तक में आयोजित हिन्दी जैन साहित्य के कालविभाग के औचित्य का समर्थन किये बिना हम नहीं रह सकते। संभव है कि कतिपय विद्वान् हमारे इस कालविभाग से सहमत न हों; परन्तु हमारा कालविभाग निराधार नहीं है। हमने यह विभक्तीकरण भाषा और भाव के परिवर्तन के आधार से किया है । इस लिए उसका अपना महत्त्व है। इससे पहले शायद किसी ने भी इस प्रकार कालविभाग का प्रायोजन नहीं किया था और न अपभ्रंश साहित्य के क्रमिक परिवर्तन का परिचय ही कहीं अन्यत्र कराया गया था । इस दृष्टि से प्रस्तुत रचना अपने ढंग की पहली कृति कही जावे तो अनुचित नहीं है।
प्रस्तुत रचना में श्री पं० नाथूराम जी प्रेमी के 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' का उपयोग विशेष रूप में किया गया है। इसके लिए हम प्रेमी जी के निकट विशेष रूप से प्राभारी हैं। अन्य जिन जिन स्रोतों से हमने साहाय्य ग्रहण किया उनका उल्लेख यथास्थान कर दिया है। उन सबके प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं।
श्री रजिस्ट्रार, भारतीय विद्याभवन बम्बई के भी हम श्राारी हैं जिन्होंने निबन्ध-प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए हमें विशेष सुविधा