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लिए बाहर जाना हमारे लिए अशक्य था । यों तो हमारा प्रायः साग समय साहित्यान्वेषण एवं लेखन में ही बीतता पा रहा है, परन्तु घर से बाहर जा कर अपने समय का सदुपयोग करना, इच्छा होते हुए भी हम कभी न कर सके यह बाधा थी जो हमें उत्साहहीन कर रही थी; परन्तु निश्चय जो कर चुके थे। ___हमने जयपुर, दिल्ली, आगरा, इन्दौर आदि स्थानों के अपने मित्रों को लिखा, क्योंकि हमने यह तय किया कि उक्त स्थानों के शास्त्रभंडारों की सूचियों से देखकर शास्त्रों के ग्रादि-अंत के ग्रंश मँगा कर घर पर ही देखेंगे। इस कार्य में जैन सिद्धान्तभवन पारा की ग्रंथसूची एवं 'अनेकान्त' में प्रकाशित हुई सूचियों से हमें बहुत सहायता मिली। हमारे मित्रों में से जिनको हमने लिखा था, केवल श्री पन्नालाल जी अग्रवाल, दिल्ली, श्रीयुत पं० नेमिचन्द्रजी शास्त्री, आरा और श्रीयुत पं० नाथूलाल जी शास्त्री, इन्दौर ने हमारे कार्य में सहयोग देने का आश्वासन दिया। उनके सहयोग से ही हम इस रचना को रचने में सफल हुए। इस लिए एक तरह से इसकी रचना का सारा श्रेय उन्हीं को प्राप्त है और इसके लिए हम उनका जितना आभार स्वीकार करें थोड़ा ही है । भाई पन्नालालजीने दिल्ली के कई शास्त्रभंडारों से ले-लेकर वे सभी ग्रन्थ जल्दी-जल्दी भेजने की कृपा की जिनके लिए हमने उनको लिखा। कई छोटी-मोटी रचनात्रों की प्रतिलिपि करके भी उन्होंने भेजी। उनकी सहयोग-भावना
और उत्साह निस्सन्देह सराहनीय है। पारा के जैन सिद्धान्तभवन से ग्रन्थ भेजने का अनुग्रह श्री नेमिचंद्र जी ने किया। पं० नाथूलालजी ने इन्दौर के शास्त्रभण्डार से कतिपय उद्धरण लेकर भेजे, अलबत्ता जयपुर के मित्रों से हमें सहयोग नहीं मिला और वहँ। के भंडारों की निधि हमारे लिये अछूती रही ! इस तरह हम अपने मनोरथ को सफल बनाने में कथञ्चित् कृतकृत्य हुए । तीन-चार महीने के अल्प समय में हमने सब ही अन्थों को पढ़ा और इतिहास लिखा भी । इतिहास की पांडुलिपि लिखने में स्थानीय उत्साही युवक श्री मनमोहनलाल जी ने हमारा हाथ बँटाया