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________________ १४. [हिन्दी जैन साहित्य का पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ने उनकी भाषा के विषय में लिखा है कि "बनारसीदासजी उच्च श्रेणी के कवि थे, उनकी अन्य रचनायें साहित्यिक भाषा में ही है, परन्तु अपनी (इस) आत्मकथा को उन्होंने बिना आडम्बर की सीधी सादी भाषा में लिखा है. जिसे सर्वसाधारण मुगमता से समझ सकें। इस रचना से हमें इस बात का आभास मिलता है कि उस समय, अब से लगभग तीन मी वर्ष पहले, बोलचाल की भाषा, किस ढंग की थी और जिसे आजकल खड़ी बोली कहा जाता है, उसका प्रारम्भिक रूप क्या था।...इसमें खड़ी बोली के प्रयोग विपुलता से पाये जाते हैं।" नीचे लिख उद्धरणों को देखिये भावी दमा होएगी जथा, ग्यानी जाने तिसकी कथा । जैसा घर वैसी नन्ह साल । इआ हाहाकार । एहि विधि राय अचानक मुभा, गाँउ गाँउ कोलाहल हुआ। तू मुझ मित्र समान । चहल पहल हुई निजधाम । पकरे पाह लोभ के लिए। बरस एक जब पूरा भया. तब बनारसी द्वार गया। जैसा कान तैसा बुन, जैसा बोव नैसा लुन । आगे और न भाड़ा किया। भाषी अमिट हमारा मता. इसमें क्या गुनाह क्या बता । कही जु होना था सो हुआ। अशा या प्रारमी, सज्जन और विचित्र । 'घर सौंदुमा न बाहे जुदा । उस समय उई-फारसी भादि के शब्द बोलचाल में कितने आ
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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