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[हिन्दी वैन साहित्य का दिल्ली के शास्त्रभंडार में मौजूद है। कविवर बनारसीदासजी ने भी कुछ गड लिखा था, उसका नमूना देखिये
"अथ परमार्थचनिका लिख्यते । एक जीवद्रम्य नाके अनंत गुण अनंत पर्याय । एक एक गुण के असंख्यात प्रदेश, एक एक प्रदेशनि विर्ष अनन्त कर्मवर्गणा, एक एक कर्मवगणा विणे अनन्त अनन्त पुद्गल परमाणु, एक एक पुद्गल परमाणु अनन्त गुण अनन्त पर्याय सहित विराजमान । यह एक संमागवस्थित जीव पिंड की अवस्था ।"
श्री बड़ा जैनमंदिर मैनपुरी के शास्त्रभंडार में सं० १६०५ का विदुषी-रम तल्हो के लिए लिखा हुआ एक गुटका है। उममें 'सम्यक्त्व के दस भेद' हिन्दी गद्य में लिखे हुए हैं। उदाहरण देखिये
"वीतराग की आज्ञामात्र रुचि होइ नान्यथावादिनो जिन । एवं आज्ञा मध्यावं ज्ञातव्यं ॥१॥ मार्ग सम्यक्व किं । मोक्ष कर मागु रवनय यनिधम्म मणिकरि रुचि उपजइ। तहा मागसम्यक्त्र कहिजइ ॥२॥ उपदेश सम्यक्त्व किं । प्रेसठिमलाका पुरुषानि कठ
चरित्र मुणिकरि रुचि उपजइ तहा उपदेस सम्यक्त कहिजाइ ॥३॥" इस प्रकार हिन्दी में उत्कृष्ट गद्य के निर्माण का श्रीगणेश इम काल में हो गया था । निस्सन्देह इस काल को हिन्दी जैन साहित्य के 'पूर्वयुग' में 'स्वर्ण-काल' कहना चाहिये। इसमें न केवल उत्कृष्ट गय के प्रारंभिक दर्शन होते हैं, प्रत्युत जैन साहित्य के सर्वोत्कृष्ट हिन्दी कवि-गण इसी काल में हुए। इस काल के जैन कवियों की रचनायें मुख्यतः आध्यात्मिक वेदान्त को लक्ष्य करके लिखी गई हैं। उस समय आध्यात्मिक-शैली की साहित्यरचना