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संवित इतिहास सामयिक माहित्यप्रगति के सर्वथा अनुकूल थी। सम्राट अकबर ने इस धार्मिक आध्यात्मिकता को प्रोत्साहन दिया था। उनके दरबार में ब्राह्मण, जैनी, ईसाई, मुस्लिम-सभी धर्मों के विद्वानों को निमंत्रित किया जाता था और उनसे धार्मिक चर्चा की जाती थी। जैन साधुओं के चरित्र और ज्ञान का प्रभाव अकबर पर ऐसा पड़ा था कि उस समय के कुछ लोगों ने यह लिख दिया कि सम्राट् जैन सिद्धान्तों को मानते हैं । अलबत्ता जैनियों के अहिंसासिद्धान्त का प्रभाव अकबर पर खूब पड़ा था। उनके 'दीनइलाही' नामक मत की आधारभित्ति आध्यात्मिकता ही थी। अतः इस काल की साहित्यिक प्रगति का अध्यात्म-भावना से अनुप्राणित होना स्वाभाविक था। इस दृष्टि से जैन कवियों की तत्कालीन रचनाओं को साम्प्रदायिकता की मुद्रा से अङ्कित करके अछूता नहीं छोड़ा जा सकता। उनकी आध्यात्मिकता राष्ट्र के लिए मुपाठ्य
और मानसिक स्वास्थ्यवर्द्धक अध्ययन की वस्तु थी। उसका निर्माण वीतराग विज्ञान और अहिंसातत्त्व के आधार से हुआ था। यही कारण है कि आगे चलकर उसमें विकार उत्पन्न नहीं हुआ। सूफी और सन्त कवियों की अलंकृत आध्यात्मिकता और निष्काम प्रेम साहित्य की सुन्दर रचनायें थीं; परन्तु आगे चलकर उनमें विकार लाया गया । व कुत्सित प्रेम की कामुक लीलाओं को प्रदर्शित करने की चीज़ बन गई। यह बात हिन्दी जैन साहित्य में नहीं हो पाई।
इस ममय के हिन्दी जैन साहित्य में हमें आगे आने वाली खड़ी बोली के बीज भी दिखाई पड़ते हैं। हिन्दी पा ही नहीं, गय भी इस समय ऐसा रचा गया जो क्रमशः विमित होकर हिन्दी के गद्य-निर्माण में पथप्रदर्शक कहा जा सकता है। कविवर बनारसीदासजी का 'अर्द्धकथानक चरित्र तो उस समय की खड़ी बोली में ही रचा गया । वह बोली शाही छावनी या लश्कर के