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________________ संक्षिप्त इतिहास] १३३ लूणसागर ने सं० १६८९ में 'अंजनासुन्दरीसंवाद' नामक ग्रन्थ रचा था। (हिं. जै० सा० इति० पृ० ५३) हर्षकीर्तिजी ने सं० १६८३ में 'पंचगतिबेल' नामक रचना रची थी, जिसकी एक प्रति श्री पंचायती मंदिर भंडार दिल्ली में है । उदाहरण के छन्द पढ़िये, जिन्हें भाई पन्नालालजी अग्रवाल दिल्ली ने लिख भेजने की कृपा की है "रिषभ जिनेमुर आदिकरि, वर्द्धमान जिन अंति । नमसकार करि सरस्वती, वरणर बेली भंति ॥१॥ मिथ्या मोह प्रमाद, मद, इंद्री विषय कषाय । जोग असंजम स्मों मरे, जीव निगोदहि जाइ ॥२॥ इक मैं इक सिद्ध अनन्ता, मिल ज्योति रहा गुणवंता । जंहि जनम जरा नहिं दीम, सुषकाल अनन्त गर्मामै ॥ सुभ संवत मोलि निवास, नवमी निथ मावण मासे । भवलोक संबोधन काजे, कविहरषकीरति गुनगाजे ॥" त्रिभुवनकीर्तिजी काठासंघ में नंदीतटगच्छ और रामसेनान्वय से सम्बन्धित थे। उनके गुरु का नाम सोमकीर्ति था । जिम समय वह कल्पवल्ली नामक स्थान में सं० १६७६ में थे, उस समय उन्होंने 'जीवंधररास' की रचना की थी। इनकी भाषा में कुछ गुजराती शब्दों का प्रयोग हुआ है। संभव है, वह गुजरात के रहनेवाले हों । उदाहरण देखिये "श्री जीवंधर मुनि नप करी, पुहुल शिवपुर ढाम । त्रिभुवनकरिति इम वीनी देयो नहा गुणग्राम ॥" गुणसागर सूरि श्री विजयपति गच्छ के श्वेताम्बर विद्वान थे। उनके गुरु का नाम पद्मसागर था। उन्होंने सं० १६७२. में
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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