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संचित इतिहास ]
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भानुकीर्ति मुनि ने सं० १६७८ में 'रविव्रतकथा' रची थी । इसकी एक प्रति सेठ का कूंचा दिल्ली के मंदिर के भंडार में -मौजूद है ।
त्रिभुवनकीर्ति भट्टारक का सं० १६७६ का रचा हुआ 'जीवंधर- रास' नामक ग्रंथ पंचायती मंदिर दिल्ली के भंडार में मिलता है । गुणसागर ( श्वे ० ) रचित ' ढालसागर' ( हरिवंशपुराण सं० १६७६ ) भी उक्त मंदिर में है । ( अनेकान्त, वर्ष ४ पृ० ५६३-५६५ )
पांडे हेमराजजी का समय सत्रहवीं शताब्दि का चतुर्थ पाद और अठारवीं का प्रथम पाद है । वह पं० रूपचन्दजी के शिष्य थे। उनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं- (१) प्रवचनसारटीका, (२) पंचास्तिकायटीका, और (३) भाषा भक्तामर । प्रवचनसारटीका सं० १७०९ और पंचान्तिकायटीका उसके भी बाद में गद्य में रची गई है। 'भाषा भक्तामर ' श्री मानतुंगाचार्य के सुप्रसिद्ध - स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद है । उदाहरण देखिये -
"प्रलय पवन करि उठी आगि जो ताम परंतर । वमैं फुलिंग शिखा उतंग पर जलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल भस्म करहेगी मानो । तड़तड़ा दव अनल, जोर चहुँदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमें उपशमै, नाम-नीर तुम लेख । होइ सरोवर परिनमें, विकसित कमल समेत ॥४१॥”
पांडे हेमराजजी ने 'गोम्मटसार' और 'नयचक्र' की वच निका भी सं० १७२४ में रचकर समाप्त की थी। उनकी एक रचना 'सितपट 'चौरासी बोल' नामक भी है । ( अर्धक० भू० पृ० २० )