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________________ संक्षिप्त इतिहास कवि ने बड़े सुन्दर और सरल रीति से लोकोक्तियों का समावेश इस रचना में किया है । देखिये, कवि ने इसमें अध्यात्मज्ञान का महत्व किस खूबी से दर्शाया है । उनका एक पद भी देखिये "जीया मेरे छोदि विषय रस ज्यों सुख पावे । मय ही विकार तजि जिण गुण गावै ॥ टेक ॥ घरी घरी पल पल जिण गुण गावै । ताने चतुर गति बहुरि न भावै ॥ रे छांदि ॥ १ ॥ जो नर निज आतमु चित लावै । सुन्दर कहत अचल पद पावै ॥ रे छांदि ॥ २ ॥". जैनधर्मगत वीतराग-विज्ञान की रक्षा करके कवि ने क्या मनोहर भक्तिरस छलकाया है। यह गुटका भ० गुणचन्द्र बागड़देशीय ने अपने एक शिष्य के पठनार्थ दिया था। ___ भ० सुमतिकीर्तिजी मूलसंघ के भ० विद्यानंदि की आम्नाय में हुए थे। भ० मल्लिभूषण के पट्टधर श्री लक्ष्मीचंद्रजी भ० सुमतिकीर्ति के दीक्षागुरु ये और भी बोरचंद से उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। उस पदके आचार्य शानभूषण और प्रभाचंद्र को वह गुरुराय कहते हैं। महुआ नामक नगर में जब भ० सुमतिकीर्ति थे तब उन्होंने 'धर्मपरीक्षारास' लिखना प्रारंभ किया था और हांसोटनयरि में सं० १६२५ में समाप्त किया था। रचना इस प्रकार है "चंद्रप्रम स्वामीय नमीय, भारती भुवना धारती । मूलसंघ महीयल महित, बलात्कार गुणसारतो ॥१॥ परित हो प्रस्यां पणु, वणाय गनि बीरदास । हासोटनबरि पूरण न्यो, धर्म-परीक्षा-राम ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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