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संक्षिप्त इतिहास]
१२५ धन इंधन आगम संजोग, दिन दिन अति बादहि ॥ लहलहै लोभ-पावक प्रबल, पवन मोह उद्धृत बहै।
दाहि उदारता आदि बहु, गुण पतंग कॅवरा' कहै ॥५९॥" विशालकीर्तिजी बागड़ देश के सागवाडिसंघ के साधुभट्टारक थे। श्री विजयकीर्ति पट्टधर शुभचन्द्र सूरि उनके गुरु थे। उन्होंने सं० १६२० में धर्मपुरी नामक स्थान में 'रोहिणीव्रतरास' नामक ग्रन्थ रचा था। यथा
"सकल कला गुण सागर रे, आगरु महिमा निधान । विजय कीरति पाटि प्रगरीला, शुभचन्द्र मूरि पाम्या मान ॥ २ ॥ तह तणा पय प्रणमामि रे, मांगू बुद्धि विशाल ।। रोहिणी व्रत वास करता, तृटि कर्मनों जाल ॥ ३ ॥
वागड देश माहिं अति भला रे, जिन भवन उत्संग । सागवारि संघरु बढ़ो, नित नवा उम्मय रंग ॥ ८ ॥ धर्मपुरो स्थानक भल्लुरे, श्रावक बसि मुविचार । त्याँ हमी राम सुगम करो, मुणज्यो भविजन नार ॥ ९॥ मंवत सोल वोसोत्तरि रे, आशाठ यदि रविवार । चउदशि दिन रलिया मणि, राम रच्यो मनोहार ॥१०॥ श्री जिन वृषभ आदिश्वर, पूरी संघ नी आम ।
सकल संघ कल्याण करु, विशालकारनि गोलि दास ॥॥" रचना साधारण है। इसकी एक प्रति सं० १६२० की लिखी हुई श्री नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के शानभण्डार में मौजूद है । (नं० अ५०)
विजयदेवसरि का समय सं० १६३३ माना जाता है। इनका रचा हुआ एक 'सीलरासा' नामक ग्रन्थ श्री नयामन्दिर धर्मपुरा