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________________ १२४ [हिन्दी बैन साहित्य का "आय पिता के पद गहे, मा रोई उर ठोकि । जैसे चिरी कुरीज की, त्यों सुत दशा विलोकि ॥" यद्यपि कविवरजी ने संस्कारित भाषा में ही अपनी अधिकांश रचनायें रची हैं, परन्तु फिर भी वह अपभ्रंश-मिश्रित भाषा प्रयोग को भी भुला नहीं मके हैं। 'मोक्ष-पैड़ी' के निम्नलिखित छन्दों को देखिए -- "इक समय मचियंतनो, गुरु अक्व सुनमल्ल । जो तुझ अंदर चेतना, बहै तुसाड़ी अल ॥ १ ॥ ए जिन वचन महावने, मुन चनुर छयल्ला । अश्वै रोचक शिवाय नो, गुरु दीन दयल्ला ॥ इस बुस बुध लहलहै, नहिं रहे मयल्ला । इपदा मरम न जानई, सो द्विपद बयल्ला ॥ २ ॥" 'मोहविवेकजुद्ध' नामक रचना भी कवि बनारसीदासजी की कही जाती है, परन्तु प्रेमीजी उसे कविवरजी की कृति नहीं समझते, बल्कि वह किसी अन्य बनारसीदास कवि की रचना बताते हैं। कुंवरपाली कविवर बनारसीदासजी के अनन्य मित्र और उनकी 'धर्म-शैली' के उत्तराधिकारी थे। यह अच्छे कवि और विद्वान थे, परन्तु इनकी कोई म्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है। 'सूक्तिमुक्तावली' में इनके रचे हुए कुछ छन्द मिलते हैं । लोभ की निन्दा का एक उदाहरण देखिये "परम धरम बन दहै, दुरित भम्बर गति धारहि । कुयश म उदगरै, भूरि भय भस्म विद्यारहि ॥ दुल फुलिंग फुकरै, तरल तृष्णा कल काहि ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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