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________________ १२३ संक्षिप्त इतिहास] "तुम उधार कीनी बहुत, आगे अब जिन देहु । मेरे पास किछ नहीं, दाम कहाँ सौ लेहु ॥" परन्तु कचौड़ीवाला भला आदमी था। उसने उत्तर दिया "कहै कचौरीवाल नर, बीस रुपैया खाहु । तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहाँ भाव तहाँ जाहु ॥" कविवर ने छै-सात महीने तक उसके यहाँ दोनों वक्त भरपेट कचौड़ियाँ खाई और जब गाँठ में पैसे आये तो चौदह रुपये देकर हिसाब साफ कर दिया। पाठक, देखिये उस समय कितना सुभिक्ष था और कितने सरल और उदार दुकानदार थे। वि० सं० १६७३ में आगरे में पहले-पहल प्लेग का प्रकोप हुआ । कविवर ने उसका आँग्वों देग्या वर्णन किम सजीवता से किया है "इमही समय ईति विस्तरी, परी आगरे पहिली मरी । जहाँ तहो सब भागे लोग, परगट भया गॉट का रोग ।। निकम गांठि मरै छिन माहिं, काह की अम्पाय काछु नाहिं । चूहे मरे वैद्य नर जाहि, भय मी लोग अन्न नहिं खाहिं ॥३५॥" कहीं-कहीं कविवर ने बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। भाई की मृत्यु पर वह लिखते हैं "धनमल घनदल उनि गये, काल-पवन-मंजोग । मात पिता तरुवर नए, लहि आनप मन-योग ॥" जब कविवर एक बड़ी बीमारी से मुक्त होकर घर आये, उस समय की स्थिति का चित्रण देखिये
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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