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[हिन्दी जैन साहित्य का हिन्दी में ही क्यों. हमारी समझ में शायद सारे भारतीय माहित्य में ( मुसलमान बादशाहों के आत्मचरितों को छोड़कर ) यही एक आत्मचरित है, जो आधुनिक समय के आत्मचरितों की पद्धति पर लिखा गया है।" (हि. जै. सा० इ० पृ. ४.)। पं. बनारसी. दास जी चतुर्वेदी ने भी 'अर्द्धकथानक' को कवियर की अपूर्व रचना बतायी है और लिखा है कि "कविवर बनारसीदास का दृष्टिकोण आधुनिक आत्मचरित-लेखकों के दृष्टिकोण से बिल्कुल मिलता-जुलता है। अपने चारित्रिक दोपों पर उन्होंने पर्दा नहीं डाला है, बल्कि उनका विवरण इम खत्री के साथ किया है. मानो कोई वैज्ञानिक तटस्थ वृत्ति से कोई विश्लेपण कर रहा हो । . . कविवर बनारसीदाम जो श्रात्मचरित लिखने में सफल हुए इसके कई कारण हैं; उनमें एक तो यह है कि उनके जीवन की घटनाएँ इतनी वैचित्र्य-पूर्ण हैं कि उनका यथाविधि वर्णन ही उनकी मनीरंजकता की गारंटी बन सकता है। और दूसरा कारण यह है कि कविवर में हाम्यरम की प्रवृत्ति अच्छी मात्रा में पायी जाती थी। अपना मजाक उड़ाने का कोई मौक़ा वे नहीं छोड़ना चाहते । .. सबसे बड़ी खूबी इस आत्मचरित की यह है कि वह तीन सौ वर्ष पहले के माधारण भारतीय जीवन का दृश्य ज्यों का त्यों उपस्थित कर देता है।" (अर्धक० पृ. २-३) अतएव यह कहना ठीक है कि "छः सौ पचहत्तर दोहा और चौपाइयों में कविवर बनारसं दाम जी ने अपना चरित्र चित्रण करने में काफी सफलता प्राप्त की है।" उसके कतिपय उदाहरण देखिये। कई महीनों तक कविवर एक कचौड़ीवाले से उधार कचौड़ियाँ खाते रहे। फिर एक दिन एकान्त में उससे बोले