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________________ १२१ संक्षिप्त इतिहास] धामघन भरो मेरे और तो न काम कछ, सुखबिसराम सो न पावें कहूँ थोभको । ऐसो बलवंत देख मोह नृप खुशी भयो, सेनापति थाप्यो जैसे अहंभार मोमको । बनारसीदास ज्ञाता ज्ञान में विचार देख्यो, लोगन को लोभ लाग्यो लागे लोग लोभको ॥" (४) अर्द्धकथानक कविवर की अपूर्व रचना है। इसमें उन्होंने अपने जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनायें संवत् १६९८ तक की लिखी हैं। इस प्रकार 'अर्द्ध कथानक' कविवर के ५५ वर्ष का आत्मचरित है। उन्होंने इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि आजकल की उत्कृष्ट आयु के अनुपात से ५५ वर्ष की आयु आधी है। अतः इस ग्रन्थ का नाम 'अर्द्धकथानक' उपयुक्त है। यदि जीवित रहा तो शेष जीवन का चरित्र और लिख जाऊँगा। किन्तु ज्ञात नहीं कि कविवर कितने वर्ष और जीवित रहे और उन्होंने शेष आयु की जीवनी लिखी भी या नहीं ? प्रेमीजी का अनुमान है कि कविवर की 'बनारसीपति' नामक रचना ही संभवतः उनके शेप जीवन का आत्मचरित्र है, परन्तु दुर्भाग्य से वह अभी कहीं से उपलब्ध नहीं हुआ है। 'अर्द्धकथानक' अब प्रकाशित हो गया है। प्रयाग विश्वविद्यालय की हिन्दी ममिति ने भी उसे यद्वा तद्वा प्रकाशित किया है, परन्तु पं० नाथूरामजी प्रेमी की बम्बई वाली आवृत्ति विशेष प्रामाणिक है। ____ 'अर्द्धकथानक के विषय में प्रेमीजी ने लिखा है कि "यह अन्य उन्हें (कविवर जी को) जैन-साहित्य के ही नहीं, सारे हिन्दी साहित्य के बहुत ही ऊंचे स्थान पर आरूढ़ कर देता है । इस दृष्टि से तो वे हिन्दी के बेजोड़ कवि सिद्ध होते हैं। ............
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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