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________________ १२. [हिन्दी जैन साहित्य का मुमुक्षुओं को सारे ग्रन्थ को पढ़कर अध्यात्मरस का आस्वादन करना चाहिये। (३) बनारसीविलास में कविवर जी की लगभग ५७ फुटकर रचनाओं का संग्रह किया गया है। सं० १७०१ में पं० जगजीवन जी ने यह संग्रह किया था। इसमें 'कर्मप्रकृतिविधान' नामक एक रचना दी हुई है, जो कविवर की संवत् १७०० की रची हुई अन्तिम रचना है। इस रचना के पूर्ण होने के केवल २५ दिन बाद ही बनारसीविलास का संग्रह किया गया था। इस क्षणिक अन्तरकाल में यदि कविवर जी का स्वर्गवास हुआ होता और उनकी स्मृति में जगजीवन जी ने यह संग्रह किया होता, तो वह इस महान वियोग और स्मृति-रक्षा का उल्लेग्य अवश्य करते । वह यह न लिखते कि"और काव्य पनी ग्वरी करी है बनारसी ने, मो भी एक क्रमसेती कीजै ग्यान भाम है । ऐसी जानि एक ठौर कीनी सब भाषा जोरि, ताको नाम धरयौ यो यनारसीविलास है ॥" कई वर्ष हुए जब यह ग्रन्थ पं० नाथूराम जी प्रेमी द्वारा “जैन प्रन्थ-रमाकर सीरीज" में प्रकाशित किया गया था। अब अनुपलब्ध है। इसमें संग्रहीत 'झानबावनी' के दो छन्द देखिये"धनारसीदास जाता भगवान भेद पायो; भयो है उछाह तेरे वचन कहाय में । भेषधार कहै भैया भेष ही में भगवान् भेष में न भगवान, भगवान भाव में ॥ सक्षकोटि जोरि जोरि कंचन अंबार कियो, करता मैं याको ये तो करे मेरी शोभको ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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