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[ हिन्दी जैन साहित्य का
बाजी से भरी हुई थी । इस रचना के सम्बन्ध में कविवर
लिखते हैं
" पोथी एक नाई नई, मित हजार दोहा चौपई । तामैं नवरम रचना लिखी पै विसेस वरनन आसिखी ॥ ऐसे कुकवि बनारसी भए, मिथ्या ग्रंथ बनाए नए ॥ "
इसके पश्चान उन्होंने जो प्रौढ़ रचनाएँ रचीं, वे साहित्य और धर्म के लिये बड़े महत्त्व की हैं। उनकी अब तक निम्नलिखित रचनाएँ मिली है
( १ ) नाममाला - जो १७५ दोहों का छोटा-सा शब्दकोप है और सं० १६७० में जौनपुर में रचा गया था । वीरसेवामंदिर सरसावा द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है ।
(२) नाटक समयसार - कविवरजी की यह सबसे प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण रचना है । यद्यपि इसका आधार पूर्वाचार्यो के ग्रन्थ हैं, परन्तु फिर भी यह एक मौलिक ग्रन्थ भासता
है । सं १६९३ में आगरे में वह रचा गया था । निम्स
こ
न्देह कविवरजी ने इसमें आध्यात्मिक अलौकिक आनन्द कूट-कूट कर भर दिया है। जरा इस मनहरण छन्द के अनुप्रास, अर्थ और भाव पर विचार कीजिये -
"करम भरम जग तिमिर हरन
उरंग लखन पग शिव
निरखत नयन भविक
जल
हरयत अमित भविक
मदन कदन जित
परम धरम
सुमिरत भगत भगत
स्वरा,
मग दरपि ।
वरपत
जन
हित,
म
सरसि ॥
इरमि ।