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संक्षिप्त इतिहास ]
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इसी प्रकार और भी कविताओं में साम्य है, परन्तु यह स्थल उनकी तुलना करने के लिये उपयुक्त नहीं है । सारांश यह कि बनारसीदासजी की कविता तुलसीदासजी की कविता से समता रखती है ।
यही एक किंवदन्ती प्रचलित नहीं है कि कविवर बनारसीदास महाकवि तुलसीदासजी के सम्पर्क में आये थे, बल्कि कहा यह भी जाता है कि सन्त सुन्दरदासजी के संसर्ग में भी वह आये थे । 'सुन्दर प्रन्थावली' के सम्पादक पं० हरिनारायण जी शर्मा, बी. ए. ने उसकी भूमिका में एक स्थल पर लिखा है कि " प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदासजी के साथ सुन्दरदासजी की मैत्री थी । सुन्दरदासजी जब आगरे गये तब बनारसीदासजी के साथ उनका संसर्ग हुआ था । बनारसीदासजी सुन्दरदासजी की योग्यता, कविता और यौगिक चमत्कारों से मुग्ध हो गये थे। तभी उतनी लाघा मुक्तकंठ से उन्होंने की थी । परन्तु वैसे ही त्यागी और मेधावी बनारसीदासजी भी तो थे । उनके गुणों से सुन्दरदासजी प्रभावित हो गये, इसीसे वैसी अच्छी प्रशंसा उन्होंने भी की थी।" प्रेमीजी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “सन्त सुन्दरदासजी का जन्मकाल वि० सं० १६५३ और मृत्युकाल १७४६ है । इसलिए बनारसीदासजी से उनकी मुलाकात होना संभव तो है; परन्तु जब तक कोई और प्रमाण न मिले तब तक इसे एक किंवदन्ती से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता ।" ( अर्धक० पृ० २५-२७ ) कविवर बनारसीदासजी की सर्वप्रथम रचना 'नवरस -
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'पद्यावली' थी, जिसे उन्होंने अपने ही हाथ समाधि दे दी थी । वह एक हजार दोहे
गोमती नदी में जलचौपाइयों में इश्क