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[हिन्दी जैन साहित्य का
"सुधाधर्मसंसाधनी धर्मशाला,
सुधातापनि मनी मेघमाला । महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी,
_ नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी । अतीता अजीता सदा निर्विकारा,
विषय वाटिका वंडिनी म्बड्ग धारा । पुरापाप विक्षेप की कृपाणी,
नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ॥" गोस्वामीजी के श्री 'नवदुर्गाविधान' का निम्नलिखित पद्य अब परा पदिए"यहैं सरस्वती हंसवाहिनी प्रगट रूप,
यहै भव भेदिनी भवानी शंभु धरनी । यह ज्ञान लस्छन मां लच्छमी विलोकियत,
यहै गुण रतन भंडार भार भरनी ॥" कविवर बनारसीदासजी के दोहे भी तुलसीदासजी के दोहों से मिलते हुये हैं। देखिये, कविवर माया के विषय में कहते हैं
"माया छाया एक है, घरै बदै छिन माहि । इनकी संगति जे लगैं, तिनहिं कहीं सुख नाहिं ॥ ज्यों काहू विषधर उसे, रुचि सों नीम चबाय ।
स्यों नुम माया सों मते, मगन विषय सुख पाय ॥" गोस्वामीजी भी यही कहते हैं
"काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह के धारि । तिहं मह अति दारण दुखद, माया रूपी नारि ॥"