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________________ ११३ संक्षिप्त इतिहास] एक कुटुम्ब में परिणत हुआ देखने की अभिलाषा रखते थे । यह उनकी महत्ता और विशालहृदयता का द्योतक है। __ आगरा उस समय अध्यात्मरसरसिक विद्वानों का केन्द्र था। कविवरजी भी वहाँ अधिक समय तक ज्ञानगोष्ठी करते हुये रहे थे। सहयोगी विद्वानों में पं० रूपचंदजी, चतुर्भुजजी वैरागी, भगवतीदासजी, धर्मदासजी, कुंवरपालजी और जगजीवनजी विशेष उल्लेखनीय हैं।' पं० रूपचंद्रजी 'गीतपरमार्थी' आदि रचनाओं के रचयिता कवि हैं, जिनका परिचय अन्यत्र लिखा गया है। श्री चतुर्भुजजी वही प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख कवि खरगसेन ने अपने 'त्रिलोकदर्पण' में किया है और उन्हें 'वैरागी' लिखा है । मालूम होता है कि वह एक उदासीन विद्वान अध्यात्मी पंडित थे। वह अक्सर लाहौर जाया करते थे और वहाँ के जिज्ञासुओं को अध्यात्मरस का पान कराते थे। भगवतीदासजी जैन साहित्य के प्रसिद्ध कवि भैया भगवतीदास से भिन्न व्यक्ति हैं और यह वह कवि प्रतीत होते हैं जो मुनि महेन्द्रसेन के शिष्य थे और सहजादिपुर के रहनेवाले अग्रवाल वैश्य थे । उनकी रचनाओं का परिचय पहले लिखा जा चुका है। धर्मदासजी शायद वे ही हैं जिनके साझे में बनारसीदासजी ने कुछ समय तक १."नगर आगरा माहि विख्याता, कारन पाइ भये बहुभाता। ___पंच पुरुष मति निपुम प्रवीने, निशिदिन शानकथा रस माने ॥१०॥ रूपचंद पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम । तृतिय भगोतीदास नर, कोरपाल गुनधाम ||१|| धर्मदास ए पंच जन, मिलि देखें इकठोर । परमारष चरचा करें इनके कथा न भोर ॥११॥" - समयसार नाटक भाषा।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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