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संदित इतिहास]
१११ भी लोक को भुलाया नहीं। उनकी दृष्टि में लोक का प्रत्येक सचेतन जाज्वल्यमान परमात्म-ज्योति से व्याप्त था। वह लोक से कहते हैं कि
"मेरे नैनन देखिये, घट घट अन्तर राम ।" परन्तु लोक ने तो अपनी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बाँध रक्खी है; वह कवि के बताये हुये सत्य को कैसे चीन्हे ? स्वयं कविवर ही उसकी इस दयनीय दशा का चित्रण निम्नलिखित पद्य में करते हैं:"पाटी बँधे लोचन सों संकुचे दबोचनि सों,
कोचनि को सोच सो निवेदे खेद तन को। धाइवो ही धंधा अरु कंधा मांहि लग्यो जोत,
बार बार आर सहै कायर है मन को । भूख सहे प्यास सहे दुर्जन को ग्रास सहे,
थिरता न गहे न उसास लहे छिनको । पराधीन धूमै जैसो कोल्हु को कमेरो बैल,
तैसोई स्वभाव भैया जगवासी जनको ॥" लोक पराधीनता की शृङ्खलाएँ तोड़ कर जब आत्मस्वान्तव्य प्राप्त करता है, तभी वह सुखी होता है। यह जागृतावस्था ही उसके लिये सुखकर है
"जब चेतन मालिम जगै, लखै विपाक नजूम ।
डारै समता श्रृंखला, यकै भँवर की घूम ॥" जो कवि समदृष्टि को ही जागृति का परिणाम बताता है, उसे क्यों न क्रान्तिवादी विश्वकवि कहा जाय ? निस्सन्देह कविवर