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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का प्रशस्ति से यह भी प्रकट है कि विवेकहर्ष पंडित ने अपने गुरु की आज्ञा से कच्छमंडल में विहार किया था और वहाँ के भारामल्ल राजाको प्रतिबोधा था। अन्त में रचनाप्रसंग का उल्लेख निम्न प्रकार है :"तास चरण सुप्रसादि विद्याहरषसुं रे पामी पामी रच्यो बे कर जोडिरे । रायपुर नगरि अंजनासती तणो रे, रास आयइ मायइ मंगलकोडिरे ॥ चद्रकला रस गगना संवच्छर जाणरे, श्री हणुमंत जननी रासरे । रंगिरे रंगिरे गणि महाणंद इम वीनवहरे, सुणतां सुणतां पहुवह मननी आसरे॥ कविवर बनारसीदास जी इस शताब्दि के ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी जैनसाहित्यसंसार के एक अद्वितीय कवि थे। हमें तो उनको 'राष्ट्रकवि' अथवा 'विश्वकवि' कहने में भी संकोच नहीं है। जो राष्ट्र के सम्मुख एक आदर्श रक्खे, उसकी गतिविधि को पलटने का ही उद्योग करे उसे 'राष्ट्रकवि' कहना ही चाहिये । 'कविवर बनारसीदासजी का केवल एक वही पद, जिसका प्रारंभ 'एक रूप हिन्दू तुरुक दूजी दशा न कोइ' से होता है, उनकी राष्ट्रीयता को व्यक्त करने के लिये पर्याप्त है। हिन्दू और मुसलमान 'दोऊ भूले भरम में' और इसीलिये वह 'भये एक सों दोइ' । कविवर उन्हें आध्यात्मिक रूप सुझा कर एक होने का उपदेश देते हैं और उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा इस आध्यात्मिक एकता का ही प्रचार किया है। इतना ही क्यों ? कविवर की आत्मा 'वसुधैवकुटम्बकम्' की नीति के रंग में रंगी हुई थी । उनको राष्ट्रहित करने में ही सन्तोष कैसे होता ? कवीन्द्र रवीन्द्र इस शताब्दि के 'विश्वकवि' इसीलिये कहलाये कि उन्होंने विश्व को आत्मकल्याण के लिये विश्वप्रेम का सन्देश दिया। कविवर बनारसीदासजी ने
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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